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रक्षणका कुछ बोध नहीं है। यदि मनुष्योंको भविष्यतकालीन - होने वाली बातका पहले से ही यथार्थ बोध हो जावे तो वे वैसा यत्न कदापि न करें । जब कि सर्पद्वारा चंदनाकी मृत्यु होनी ही नहीं थी जिसको कि मृगावती भी जानती होगी तो उसने फिर चंदनाका हाथ क्यों हटाया ? इस कारण दो बातों में से एक बात माननी होगी कि या तो मृगावती को केवलज्ञान ही नहीं हुआ था । उसके केवलज्ञानकी उत्पत्ति बतलाना असत्य हैं । अथवा मृगावतीको केवलज्ञान था ही तो श्वेताम्बर संप्रदाय के माने हुए सर्वज्ञों में कुछ अंश अज्ञानताका भी रहता है जैसा कि मृगावती में था ।
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तथा - मृगावती को केवलज्ञान रहते हुए भी मोहभाव इस कारण सिद्ध होता है कि दूसरे जीवके प्राण रक्षणका कार्य तब ही होता है जब कि प्राण रक्षा करनेवाले में कुछ शुभ राग हो । रागद्वेषका नाश हो जानेपर उपेक्षा भाव उत्पन्न होता है जिससे कि वीतराग किसी जीवके घात करने अथवा रक्षण करने में प्रवृत्त नहीं होता है। दूसरे जीवको बचाने के लिये प्रवृत्ति करना इस बातको सिद्ध करता है कि उस वीतराग नामधारीके भीतर इच्छा विद्यमान है । इस कारण मृगावतीने सर्प के आक्रमण से बचाने के लिये जो चंदनाका हाथ एक ओर हटाया उससे सिद्ध होता है कि मृगावतीकी इच्छा चंदनाके प्राण बचानेकी थी । अन्यथा वह उसका हाथ वहांसे क्यों हटाती १ अतएव उसके मोहमाव भी सिद्ध होता है ।
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। दूसरे
एवं पं० काशीनाथजी जो कि श्री चन्द्रसिंह सूरीश्वर के शिष्य हैं अनेक पुस्तक के लेखक हैं उनके लिखे अनुसार केवलज्ञानधारिणी मृगावतीने चंदनासे यह भी कहा कि मुझे जो केवलज्ञान हुआ है वह आपकी कृपा है " व्यक्तिका आभार ( अहसान ) मानना अल्पज्ञ और मोहसहित जीवका काम है जो कि अपने ऊपर उपकार करनेवाले को अपनेसे ऊंचा समझता है । वीतरागी, सर्वज्ञ आत्मा के भीतर किसीको अपने आपसे बडा या छोटा समझने की इच्छा ही नहीं होती और न वह दूसरे से यों कहता ही है कि
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