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चारित्र, यथारूयात चारित्र हो सके तथा उनके अंगोपांग भी ऐसे हैं जो कि उनके ध्यानमें दृढता नहीं रखा सकते हैं, क्षोभ उत्पन्न करा देते हैं । इस कारण उनको शुक्लध्यान होना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है।
प्रथम तो स्त्रियों के अंगोंमें ( योनि, स्तन, और काखमें ) सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते रहते हैं और माते रहते हैं। श्वेताम्बरीय सिद्धान्त के अनुसार केवलज्ञान हो जाने पर भी औदारिक शरीरमें कुछ अंतर नहीं भाता। समस्त धातु उपतु पहले जैसे ही रहते हैं। तदनुसार (श्वेताम्बरीय सिद्धान्तानुसार ) नियोंके केली होनेपर भी उन अंगोंमें सम्मूर्छन जीवोंकी उत्पत्त, मरण होता ही रहेगा । इस तरह स्त्रीका शर र स्वगवसे हिंसाका स्थान है । इस हिमाको दूर करना स्त्रियोंकी शक्तिसे ब हर है । अतः उनके शरीरसे संयमकी शुद्धता पूर्ण नहीं बन सकती।
दुसरे-स्त्रियों का शरीर बाब शुद्धि नहीं रख साता क्योंकि उनके अंगसे अशुद्ध मल बहता रहता है। प्रतिमास और कभी बीच बीचमें भी रजसाव ( रज निकलना ) हुआ करता है जिससे कि वे आवित्र रहती हैं । उस समय उनको किसी मनुष्य स्वीका शरीर, शास्त्र माद स्पर्श करनेकी आज्ञा नहीं है और न उस अपवित्रतामें ध्यान ही बन सकता है। यह सदाकालीन अशुचिता भी मानसिक पवित्रता की बाधक है।
तीसरे:- कमसे कम प्रतनास मासिकधर्म [ रजस्वला । हो जान्के पीछे स्नान करने के लिये साध्वी को ( आर्यिकाको ) जलकी आवश्यकता होती है। इस कारण अरंभ का दोष उनसे नहीं छूट सकता । विना आरंभ छूटे महाव्रत भी कैसे पल सकते हैं।
चौथे-साध्वी स्त्रीको रजस्वला हो जानेके पीछे अपनी साडी बदलनेकी भी आवश्यकता होती रहती है। इस कारण विवश (लाचार) होकर उन्हें गृहस्थसे वखोंकी याचना करनी पड़ती है क्योंकि विना दुसरा वस्त्र बदले उनके शरीर तथा हृदयमें पवित्रता नहीं आती । इस
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