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। अर्थात् - तीर्थ शब्दका अर्थ द्वादशांग अथवा श्रावक. भाविका, मुनि, आर्यिका ये चार प्रकारका संघ है । इस द्वादशांग अथवा चतुर्विध संघको चलानेवाला तीन लोकका अतिशयधारी, अनुपम महिमाका स्वामी ऐसा पुरुष ही होना चाहिये । किन्तु इस वर्तमान चौवीसीमें कुंभ राज' की प्रभावती सनीकी पुत्री श्रीरली नामकी कुमारी हुई उसी ने उन्नीसवां तीर्थकर होकर तीथं चलाया । यह तीसरा आश्चर्य है।
यद्यपि स्त्रीका तीर्थकर होना, केवली होकर मोक्ष जाना अगम, अनुमान आदि प्रमाणों से विरद्ध है जो कि हम पीछे सिद्ध कर आये हैं । किन्तु यहांपर इस श्री म्ल कुमारी तीर्थकरी की बातको श्वेताम्बरीय शास्त्रोंसे भी प्रमाणविरुद्ध ठहराते हैं।
प्रकरणरत्नाकर अपानाम प्रवचनसारोद्धार तीसरा भागके ५४४ वें पृष्ठकी अंतिम पंक्ति में एक गाथा यह है -
अरहंत चक्कि केसव बलसंभिन्नेय चारणे पुव्वा ।
गणहर पुलाय आहारगं च न हु भरिय महिलाणं ॥ ५२० यानी-अर्हत, अर्थात् तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलमद्र, संभिन्न श्रोता, चारणऋद्धि, पूर्वधारित्व. गणधर, पुलाक और आहारकऋद्धि ये दश पद भव्य स्त्रियों के नहीं होते हैं।
प्रवचनसारोद्धार नामक श्वेताम्बरीय सिद्धान्तग्रंथके इम नियमके अनुसार स्त्रीका तीर्थकर होना निषिद्ध है। फिर श्री मल्लिनाथ तीर्थक को स्त्री कहना श्वेताम्बरीय आगम प्रमाण से बाधित है अतएव असत्य है । प्रवचनसारोद्धार की उक्त गाथाको प्रामाणिक स्वीकार करनेवाले पुरुषको " माता मे बन्ध्या " यानी मेरी माता बंध्या ( बांझ ) है इस कहावतके अनुसार गलत है। इसलिये श्वेताम्बरी भाइयोंके लिये इन दो बातो से एक ही मान्य हो सकती है या तो वे श्रीमल्लिनाथ तीर्थकर को पुरुष मानें-स्त्री न कहें, अथवा प्रवचनसारोद्धारको अप्रामाणिक कह देवें।
दुसरे-मलनाथ तीर्थकरका जीव तीसरे अनुत्तर विमान जयन्तसे चयकर आया था ऐसा ही नि आत्मारामजी अपने जैनतत्वादर्श ग्रंथके
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