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( ७२ ) की कृष्णपक्षवाली त्रयोदशीको ८३ वां दिन था उप रात्रिके समय हरिणेगमेषी देवने त्रिशला माताके पेट में भगवानको पहुंचाया। जिस रातको श्रमण भगवान् महावीर देवानंदा ब्रामणीके पेटमेंसे त्रिशला रानीके पेट में संहरण रूपसे आये उस रातको त्रिशलाको वे १४ शुभ स्वप्न दिखाई दिये जो कि पहले देवानंदाने देखे थे ।
सारांश यह है कि भगवान महावीर आषाढ सुदी ६ से आसोज वदी त्रयोदशीकी आधी रात तक देवानंदा ब्राम्हणीके पेटमें रहे और उसके पीछे फिर त्रिशला सनीके गर्भ में रहे।
श्री महावीर स्वामीके गर्भहरणकी यह कथा सभी श्वेतांबरीय शास्त्रोंमें प्राय इसी प्रकार समान रूपसे है । इस गर्भहरणकी बातको भी श्वेतांबरीय ग्रंथकारोंने " अछेरा" कहकर टाल दिया है । किंतु बुद्धिमान पुरुष असंभव बातको इतनी टालमट्रलसे नेत्र मीचकर स्वीकार नहीं कर सकता।
भगवान महावीर स्वामीके गर्भहरणका यह कथन कितना अस्वाभाविक, बनावटी इसी लिये असत्य है इसको प्रत्येक साधारण पुरुष भी समझ सकता है । जिस तीसरे मासमें गर्भाशयके भीतर शरीरका
कार भी पूर्ण नहीं बन पाता है उस अधूरे गर्भको एक पेटसे निकाल दूसरे पेटमें किस प्रकार रक्खा जा सकता है ? शारीरिक शात्र, वैद्यक शास्त्र तथा विज्ञान शास्त्र के अनुसार तीन मासका गर्भ पेटसे निकलनेपर कभी जीवित ही नहीं रह सकता । दूसरे पेटमें जाकर जमकर वृद्धि पावे यह तो एक बहुत दूरकी पान ठहरी । इस कारण यह गर्भ हरण की बात सर्वथा असत्य है।
महावीर स्वामी के गर्भहरणकी असत्य बातको सच्चा रूप देनेके लिये “ भगवान् ऋषभदेवके पौत्रने अपने उस मरीचिके भवमें अपने पिता ( भरत ) पितामहके ( बाबा-भगबान ऋषभदेव ) चक्रवर्ती तथा तीर्थकर होनेका तथा आगामी समयमें अपने तीर्थकर होनेका गर्व किया था इस कारण महावीर स्वामीके जीवने उस मरीचि भवमें जो नीच गोत्र कर्मका बंध किया उसका उदय असंख्यात वर्ष पीछे इस अंतिम
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