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अन्यलिंगी साधुओंकी जब कि श्रद्धान, समझ तथा आचरणकी यह अवस्था है तब उन्हें किस प्रकार तो सम्यग्दर्शन है और किस प्रकार सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ही हो सकते हैं ? और किस प्रकार विना सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान सम्यक् चारित्र उत्पन्न हुए उन अन्यलिंगवारी साधुओंको मुक्ति प्राप्त हो सकती है ?
तथा एक बात बडे भारी कौतूहलकी यह है कि प्रकरणरत्नाकरके तीसरे भागमें पहले लिखे अनुसार अन्यलिंगसे मुक्ति होना बतलाया है और इसी प्रकरणरत्नाकर चौथे भागके संग्रहणीसूत्र नामक प्रकरणमें ७३ वें पृष्ठपर यों लिखा है कि
तावस जा जोइसिया चरग परिव्वाय बंभलोगो जा।
जा सहस्सारो पंचिदि तिरियजा अच्चुओ सढ्ढा ॥ १५२॥
अर्थात्-तापसी साधु अपनी उत्कृष्ट तपस्याके प्रभावसे भवनवासी मादि लेकर ज्योतिषी देवों में उत्पन्न हो सकते हैं। और चरक तथा परिव्राजक साधु ब्रह्म स्वर्ग तक जा सकते हैं । सम्यक्त्वी पंचेन्द्रिय पशु सहस्रार स्वर्ग तक जा सकते हैं तथा देशव्रती श्रावक अच्युत स्वर्ग तक जा सकते हैं। ____ इस उल्लेखके अनुसार अन्यलिंगी साधु ब्रम्ह स्वर्गसे भी आगे नहीं पहुंच सकते । मुक्ति पहुंचना तो बहुत दूरकी बात ठहरी । इस प्रकार प्रकरण रत्नाकर अपनी पहली बातको अपने आप आगे चलकर छिन्न भिन्न कर देता है।
थोडा विचार करनेकी बात है कि यदि अन्य लिंगसे भी मुक्ति सिद्ध होजाती तो तीर्थकर देब जैन मार्गका क्यों उपदेश देते ? और क्यों यह बात बतलाते कि रागद्वेष आदि दूर करने के लिए इसी प्रकार अहिंसा समिति आदि रूपसे चारित्र पालन करो ? अन्यलिंगसे अथवा अन्यलिंगके श्रद्धान, ज्ञान, आचरणसे आत्माकी शुद्धि नहीं हो पाती है; इसीलिये तो वीतराग जिनेंद्रदेवने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र प्राप्त करनेका उपदेश दिया है। ___अत एव सिद्ध हुआ कि जैनलिंगके सिवाय अन्यलिंगसे मुक्ति नहीं होती है।
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