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तदनुसार-प्रकरणरत्नाकर ( प्रवचनसारोद्धार : तीसरे भागके १२७ वें पृष्ठपर यों लिखा है कि
इह चउरो गिहिलिगे दसन्नलिंगे सयंच अहहियं । विनयंच सलिंगे समयेणं सिद्धमाणाणं ॥ ४८२ ॥
अर्थात्-एक समयमें अधिक से अधिक गृहस्थलिंगसे चार मनुष्य सिद्ध होते हैं, दश अन्य तापस आदि अजैनलिंगधारी मोक्ष पाते हैं और एक सौ आठ जनसाधु मुक्ति प्राप्त करते हैं।
यदि ग्रंथकारके इस लिखनेको श्वेताम्बरी भाई सत्य प्रामाणिक समझते हैं तो उन्हें अजैन जनतामें जैनधर्मका प्रचार कदापि नहीं करना चाचिये क्योंकि जैनधर्म धारण करानेका प्रयोजन तो यह ही है कि साक्षात् रूपसे या परम्परासे वह जैनधर्म ग्रहण करने वाला पुरुष मोक्ष प्राप्त कर लेवे । सो मोक्ष प्राप्ति तो जिस किसी भी धर्ममें वह रहेगा वहांसे ही उसको मुक्ति मिल सकती है । मुक्ति से ऊंचा कोई और स्थान नहीं जहाँपर कि आपके कथनानुसार अन्य लिंगधारी साधु न पहुंच सके।
यदि अन्यलिंगी साधुको भी मुक्ति होजाती है तो तत्वाधिगम सूत्रका
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः यानी-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र इन तीनोंकी पूर्णता मोक्षका मार्ग है ।
यह सूत्र व्यर्थ है क्योंकि कुगुरु कुदव, कुधर्मका श्रद्धालु, मिथ्या शास्त्रों के ज्ञानसे परिपूर्ण और तापस आदिके रूपमें मिथ्या तप आचरण क रनेवाला अन्यलिंगी साधु भी जब आपके श्वेतांबरीय ग्रंथोंके अनुसार मुक्ति प्राप्त कर लेता है तब फिर सम्यग्दर्शन सम्याज्ञान सम्यक्चारित्र को ही मुक्तिमार्ग बतलानेमें क्या तथ्य रहता है। __अनेक श्वेतांबरीय ग्रंथकारोंने अपने ग्रंथों में कुगुरुकी तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र की बहुत विस्तारसे निंदा की है सो भी निरर्थक है क्योंकि जिनको उन्होंने " कुगुरु " कहा है वे तो मुक्ति प्राप्त करनेके पात्र हैं- उसी अपनी कुगुरु अवस्थासे मुक्ति जा सकते हैं।
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