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सुनक्षत्रसर्वानुभूती अनगारौ मध्ये उत्तरं कुर्वाणौ तेन तेजोलेश्यया दग्धों स्वर्ग गतौ ... एवं च प्रभुणा यथास्थिते ऽमिहिते स दुरात्मा भगवदुपरि तेजोलेश्यां मुमोच सा च भगवन्तं त्रिः प्रदक्षि णीकृत्य गोशालकशरीरं प्रविष्टा तथा च दग्धशरीरो विविधां वेदनां अनुभूय सप्तमरात्रौ मृतः । "
भावार्थ - तत्र भगवान महावीर स्वामीने आनन्दसे कहा कि तू गोतम गणधर आदि सब मुनियोंसे जाकर कह दे कि गोशाल यहां पर आरहा है सो कोई भी उसके साथ बात चीत न करे । समस्त, साधु इधर उधर चले जावें ।
आनंदने जाकर सबसे वैसा ही कह दिया
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तदनन्तर वहां पर गोशाल आया । उसने आकर क्रोध से महावीरस्वामीसे कहा कि तुम मेरे लिये यह क्या कहते हो कि यह मंखली ग्वालेका पुत्र गोशाल है | गोशाल तो कभीका मरगया । मैं दूसरा ही हूँ ।
इस प्रकार भगवान महावीरका तिरस्कार होते देखकर सुनक्षत्र और सर्वानुभूति नामक साधुओंसे न रहा गया और उन्होंने उसको कुछ उत्तर दिया कि झट गोशालने उन दोनोंपर तेजोलेश्या चलाकर उन्हें वहीं पर उसी क्षण भष्भ कर दिया ।
तब फिर महावीर स्वामीने भी उससे कहा कि तु वह ही मेर शिष्य गोशाल है दूसरा कोई नहीं है । मेरे सामने तु नहीं छिप
सकता ।
इस प्रकार अपनी सच्ची निन्दा सुनकर गोशालने महावीरस्वामी के ऊपर भी तेजोलेश्या चला दी । किन्तु तेजोलेश्या महावीरस्वामीकी तीन प्रदक्षिणा देकर उस गोशालके शरीर में ही घुस गई। जिससे वह जलकर सातवीं रात मर गया । परन्तु उस तेजो लेश्याकी गर्मीसे महावीर स्वामीको भी छह मास पेचिशके दस्त होते रहे ।
इस रोग को दूर करनेका वृत्तान्त भगवती सूत्रमें १२६७ वें से १२७२ वें तकके पृष्ठों पर यों लिखा है कि
महावीर स्वामी के पित्तज्वर पीडित शरीरको देखकर सब साधु
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