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अर्थात-भाववेदकी अपेक्षा एक समयमें अधिकसे अधिक वीस नपुंसक, चालीस स्त्रीवेदी, और ४८ पुरुषवेदी ऐसे १०८ जीव सिद्ध होते हैं।
इसका अभिप्राय यह नहीं है कि त्रिलोकसार के रचयिता श्री नेमिचंद्राचार्य सिद्धान्त चक्रवर्ती द्रव्यस्त्री तथा द्रव्य नपुंसकको भी मोक्ष होना बतलाते हों। किन्तु इसका अभिप्राय यह है कि श्रेणी चढते समय किसी मुनिके भाव स्त्रीवेदका उदय होता है किसीके नपुंसक भाववेदका उदय होता है और किसीके पुरुष भाव वेदका उदय होता है । द्रव्यसे सब पुरुषधारी ही होते हैं। भावोंकी अपेक्षा वेद नोकषायके उदयसे केवलज्ञा निगम्य उनके भिन्न भिन्न वेद हो सकते हैं।
श्वेताम्बर मुनि आत्मारामजी यदि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवकी लिखी हुई गाथा का ठीक अभिप्राय समझनेका कष्ट उठाते तो वे कमी ऐसी मोटी भूल नहीं करते; क्योंकि जो श्री नेमिचन्द्राचार्य गोम्मटसार कर्मकाण्डमें- लिखते हैं कि--
अंतिमतियसंहणणस्सुदओ पुण कम्यमूभिमहिलाणं ।
आदिमतियसंहणणा णस्थित्ति जिणेहिं णिदिष्ठं ॥ ३४ ॥ यानी- कर्मभूमिज स्त्रियों के ( जो चारित्र धारण कर सकती हैं) अंतिम तीन संहनन होते हैं । उनके वज्रऋषभनाराच आदि तीन उत्तम संहनन नहीं होते हैं। . इस गाथा द्वारा वे स्त्रियों के वज्रऋषभनाराच संहननका स्पष्ट निषेध करते हैं जिसके विना मोक्ष प्राप्त होना असंभव है।
दिगम्बरीय ग्रंथों में द्रव्यस्त्रीको पांचवें गुणस्थानसे आगेका कोई गुणस्यान नहीं बतलाया है, परग्रह याग महावत का अभाव बतलाया है। फिर भला, उनको मुक्ति होना वे कैसे रतला सकते हैं। दिगम्बर जैन ग्रंथकारों का यह जग प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि नग्न वेश धारण किये विना छठा आदि गुणस्थान नहीं होता है। स्त्रियां नम हो
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