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तुच्छा गारवबहुला चलिदिया दुब्बला अधीइए । अ असेस झयणा भूअ वाओ अनोच्छीणं ॥
अर्थ - दृष्टिवाद जे वारमुं अंग ते स्त्रीनें न भणाववुं जे भणी स्त्रीजाति स्वभावे तोछडी होय छे ते माटे गर्व घणो करे, विज्ञा जीवी न शके, इंद्रिय चंचल होय, बुद्धी ओछी होय ते माटे ए अतिशय पाठ भणी स्त्रीने निषे युं छे । ते दृष्टवाद माहे चौथे अधिकारें पूर्वट्टे माटे पूर्व मण्या विना स्त्री आहारक शरीर न करे । "
अर्थात् — प्रमत्तगुणस्थान वर्तिनी स्त्रीको आहारक तथा आहारक मिश्र नहीं होता है क्योंकि आहारक, आहारक मिश्र चौदह पूर्वधारी पुरुषके ही होता है, स्त्रीके तो चौदह पूर्वका पढाना निषेध किया है। क्योंकि सूत्रमें बतलाया है कि
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तुच्छा गारवबहुला चलिदिया दुब्बला अधीte | अ अवसेस झणा भूअ वाओअ न च्छीणं ||
यानी - दृष्टिवाद नामक बारहवा अंग स्त्रीको नहीं पढना चाहिये क्योंकि स्त्रीजाति स्वभावसे तुच्छ ( हलकी, नीच ) होती है, इसलिये
( अभिमान - घमंड) बहुत करती है, विद्याको पचा नहीं सकती, उसकी इन्द्रियां चंचल होती हैं, बुद्धि ओछी ( हलकी ) होती है । इसलिये अतिशय पाठ स्त्रियोंको पढाना निषिद्ध है । दृष्टिवाद अंगके पांच अधिकारोंमें से चौथा अधिकार चौदह पूर्व है । इस कारण पूर्व पढाये विना स्त्री आहारक शरीर नहीं कर सकती हैं ।
प्रकरण रत्नाकरके इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री की प्रकृति स्वभावसे तुच्छ होती है । उसमें अधिक, अतिशयवाला ज्ञान पचानेकी शक्ति नहीं होती । क्योंकि उसकी बुद्धि हीन होती है, इन्द्रियां चंचल होती हैं और उसको अभिमान बहुत होता है । इसी लिये उसको चौदह पूर्व धारण करनेकी शक्ति नहीं । जब कि श्वेताम्बरीय कर्मग्रंथ ऐसा स्पष्ट कहता है तो निर्णय अपने आप हो जाता है कि स्त्री चौदह पूर्व धारण करनेकी शक्ति कहांसे आसकती
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