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सीयफासा फुसती, तेउफासा फुसति, दसमसगफासा फुसंति, फायर अनवरे विरूवरूवे फासा अहियासति अचेले लावांवयं आगमाणे । तवेसे अभिसमन्नागए भवति । जहेतं भगवया पदिय तमेव अभिसमेचा सव्वओ सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणियाः ॥ ३४ ॥
अर्थात् - जो साधु लज्जा जीत सकता हो वह वस्त्ररहित ना ही रहे । नन्न रहकर तृणस्पर्श, शर्दी, गर्मी, दंशमशक तथा और भी अनुकूल प्रतिकूल जो परिषह आवें उन्हें सहन करे। ऐसा करने से साधुको अल्पचिन्ता ( थोडी फिक्र ) रहती है और तप भी प्राप्त होता है। इस कारण भगवानने जैसा कहा है वैसा जानकर जैसे बने तैसे रहे।
... भाचारांग सूत्रके इस कथनसे स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बरीय ग्रंथकार भी कपडोंको परिग्रह मानते हैं । उसके कारण साधुके चित्तपर चिन्ताभारका होना स्वीकार करते हैं तथा इसकी कभीका भी अनुभव करते हैं। यानी श्वेताम्बरीय ग्रंथकारोंके मतसे भी वस्त्र एक परिग्रह है विना उसका त्याग किये साधुकी कपडोंके संभालने, रखने, उठाने रक्षा करने, धोने आदि सम्बन्धी मानसिक चिंता दूर नहीं होती है और न तफ पूर्ण होता है। इस कारण अभिप्राय यह साफ प्रगट होता है कि व छोडे धिना साधुका चारित्र पूर्ण नहीं होता और चारित्र पूर्ण न होने वन रखते हुए साधुको मुक्ति नहीं हो सकती । इसलिये सियों के वेतांवरीय ग्रंथकारोंके मतसे वस्त्र पहननेवाली स्त्रियोंके चारित्रकी पूर्णता नहीं हो सकती ।
मी भाचासंग सूत्रके ९५ वें पृष्ठपर सबसे नीचे पहली टिप्पणी में लिखा हुआ है कि -- ____ " जिनकल्पिक होय तो सर्वथा वस्त्ररहित बनी भने स्थविरकवियत होय तो अल्पवस्त्र धारण करी ।" __यानी-यदि साधु जिनकल्पी हो तो बिलकुल वस्त्ररहित नग्न बनें और यदि स्थविरकल्पी हो तो थोडे वस्त्र पहने ।
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