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- आचारांगसूत्रके टीकाकारकी इस टिप्पणीसे स्पष्ट होता है कि साधु
का ऊंचा वेश तो नग्न (नंगा) है। जो साधु नम न रह सकता हो वह विवश (लाचार) होकर थोडे कपडे पहनता है। मुक्ति ऊंचा आचरण पालन करनेति ही होती है इस कारण साधु जब तक नम न हो तब तक उसको मुक्ति मिलना असंभव है। ___ वन न रखनेसे साधुकी मानसिक भावना किलनी पवित्र हो जाती है इसपर आचारांगसूत्रके छठे अध्यायके तीसरे अध्यायके ३६. वें सूत्रमें ९७ वें पृष्ठपर ऐसा प्रकाश डाला है
___“जे अचेले परिसिए तस्सणं भिक्खुस्स णो एवं भवइ-परि. जिन्ने मे वत्थे, वत्थे जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, घई जाइस्सामि संधिस्सामि सीविस्सामि उक्कसिस्सामि बोकसिस्सानि, परिहरिस्सामि. पाउणिस्सामि ॥ ३६० ॥ __अर्थात्-जो मुनि वस्त्ररहित नग्न होता है उसको यह चिन्ता नहीं रहती कि मेरा कपडा फट गया है, मुझे दुसरा नया कपडा चाहिये, सीनेका धागा चाहिये, सुई चाहिये, मुझे अपना कपडा मोडना है सीना है, बढाना है, फाडना है. पहनना है तथा उसकी तह करनी है। ____आचारोगसूत्रकार जो स्वयं श्वेताम्बरीय आचार्य हैं, कपड़ा रखने के निमित्तसे मुनियों की मानसिक चिन्ता का उनके वस्त्र संबंधी हर्ष विषादका, राग द्वेषका अच्छा अनुभव करते हैं। इसी कारण बतलाते हैं कि जो माधु या साध्वी ( आर्यिका ) कपडे पहनते हैं उनको अपने कपड़ोंके सीने, फाडने, जोडने, पहनने, रखने उठाने, सुरक्षित रखने आदिको चिन्ता रहती है तथा नया कपडा गृहस्थके यहांसे मांगनेकी आकुलता रहती है। विचारनेकी बात है कि बस रखनेसे साधुके चित्तसे ऐसी दुश्चिन्ता दूर नहीं हो सकती और जान मुनिके हृदयसे दुश्चिंता दूर न हो तब तक वह अंतरंग बहिरंग पहिग्रहका त्यागी कैसे हो सकता है ? तथा परिग्रहका त्याग हुए बिना छठा गुणस्थान और उसके बहुत दूर आगेकी मुक्ति भी कैसे हो सकती है ?
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