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इस तरहसे कर्मभिद्धान्त के अनुसार स्त्रियाँ पुरुषोंकी अपेक्षा हीन शक्तिवाली ठहरती हैं । इस कारण निर्बल स्त्रियां जब कि संसार में सबसे उत्कृष्ट सुखका स्थान सर्वार्थसिद्धि आदि विमान और सबसे अधिक दुख के स्थान सातवें नरक को पाने योग्य शुभ, अशुभ कर्मोंका बन्ध नहीं कर सकती फिर वे मोक्षको किस प्रकार प्राप्त कर सकती हैं? अर्थात् कदापि नहीं प्राप्त कर सकती ।
पुरुष तथा स्त्रीकी शक्तिका विचार यह तो कर्म सिद्धान्त के अनुसार हुआ । अब यदि हम व्यावहारिक दृष्टिसे दोनों की शक्तिका विचार करने बैठें तो भी यह ही निश्चय होता है कि स्त्रीजाति पुरुषजाति से बलमें हीन होती है ।
देखिये पुरुषों में पहले बाहुबली, रावण, हनुमान, भीम, अर्जुन, कर्ण, द्रोणाचार्य, आदि प्रख्यात वीर पुरुष हुए हैं जिनकी शूर वीरताको ऋषभनाथपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण ( महाभारत ) आदि ग्रंथ प्रगट कर रहे हैं । चन्द्रगुप्त, खारवेल, अमोघवर्ष, पृथ्वीराज, प्रतापसिंह, शिवाजी आदि प्रतापी शुर वीर राजा भी पुरुष ही थे जिनके कारण शत्रुओंकी सेनाएं भय से थरथराती थीं । यद्यपि कोई कोई स्त्री भी शुवीर हुई है किन्तु शूरवीर पुरुषकी अपेक्षा वे भी बलहीन ही थीं इसी कारण वे अंत में पराजित हुई हैं ।
सेनाओंके नायक सेनापति सदा पुरुष ही होते आये हैं । राजसिंहासनपर बैठकर राज्य शासन करने वाले राजा भी सदा पुरुष ही हुए हैं। शासन कग्नेकी वास्तव शक्ति स्त्रियों में होती ही नहीं । यदि कभी कहींपर किसी स्त्रीने किसी कारणवश राज्य भी किया है तो वीरपुरषों के सहारे से ही किया है । केवल अपने बाहुबलसे नहीं किया है ।
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पुरुषोंके समान स्त्रियोंमें बडे बडे पहलवान भी नहीं हुए हैं । तथा पुरुष जिस प्रकार नीतिसे स्वीकार की हुई ९६-९६ हजार तक स्त्रियों को अपनी पत्नी बनाकर उनका उपभोग करते रहे हैं । अब भी किसी किसी राजा के कई कई सौ स्त्रियां विद्यमान हैं । इस प्रकार स्त्रियोंने पुरुषों के ऊपर अपना बल प्रगट नहीं किया है। इसी प्रकार निन्दनीय
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