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करते रहते हैं । जिस प्रकार ध्यानमग्न साधुके ऊपर असा शारीरिक वेदमा देने वाला उपसर्ग होता है किन्तु उनको वढ़ दुख रंचमात्र भी नहीं मालूम होता । वे अपने आत्मा के अनुभव में लीन रहते हैं । "
श्वेताम्बरीय भाइयोंका यह उत्तर भी निःसार है अतएव उपहास - are है । क्योंकि भूख से यदि केवलज्ञानीके आत्माको असह्य कष्ट न होने तो उनको भोजन करनेकी आवश्यकता ही क्या ? भोजन मनुष्य तब ही करते हैं जबकि उनका आत्मा व्याकुल हो जाता है । किसी भी कार्य करने में समर्थ नहीं रहता । ज्ञानशक्ति विद्यमान रहनेपर भी क्षुधा की असा वेदना से किसी विषयका विचार नहीं कर सकते ।
इस कारण केवलज्ञानीको कवलाहारी माना जाय तो यह भी निःसन्देह मानना होगा कि उनको भूखका असह्य दुःख उत्पन्न होता है उसको दूर करने के लिए ही वे भोजन करते हैं । इस मानने से वे अनन्त अविच्छिन्न सुखके अधिकारी नहीं माने जा सकते ।
-postme
केवलज्ञानीको भूख कैसे मालूम होती है ?
हम सरीखे अल्पज्ञ जीवको तो भूख लगनेपर बहुत भारी व्याकुलता उत्पन्न होती है । इस कारण हमारा मन हमको खबर दे देता है । उसकी सूचना पातेही हम भोजनसामग्री एकत्र करने में लग जाते हैं । भोजन तयार हो जाने पर आम्म कर देते हैं और तब तक खाते पीते रहते हैं जब तक हमारा मन शान्ति न पा ले । मनकी शान्ति देखकर हम खाना बंद कर देते हैं ।
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इसी प्रकार केवलज्ञानीको जब भूख लगे तब उन्हें मालुम कैसे हो कि इमको भूख लगी है? क्यों कि उनके मन ( भावरूप ) रहा नहीं है । इस कारण मानसिक ज्ञान नहीं । यदि वे केवलज्ञानसे अपनी मुखको जानकर भोजन करते हैं तो बात कुछ बनती नहीं क्योकि केवलज्ञानसे तो वे सब जीवोंकी भुखको जान रहे हैं। फिर वे औरों की भूख जानने के समय भी भोजन क्यों नहीं करते हैं। क्योंकि दोनो जानने बराबर हैं उनमें कुछ अंतर नहीं,
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