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अर्थात्-- क्योंकि केवलज्ञानीके सिर्फ साता वेदनीय कर्मका बंध एक समय स्थितिवाला होता है जो कि उस ही समय उदय आजाता है। इस कारण उस साता वेदनीयके उदयके समय, पहले बंधे हुए असाता वेदनीय कर्मका यदि उदय हो तो वह भी साता वेदनीयके निमित्तसे सातारूप होकर ही चला जाता है । इसी कारण केवलज्ञानी के सदा सातावेदनीयका उदय रहता है । अत एव असाता वेदनीयके उदयसे होने योग्य क्षुधा आदि ११ परीषह नहीं हो पाती हैं। ___ इस प्रकार कर्मसिद्धान्तसे भी स्पष्ट सिद्ध हो गया कि केवलज्ञानीको न तो भूख लग सकती है और न वे उसके लिये भोजन ही करते हैं।
भोजन करना आत्मिक दुःखका प्रतीकार है।
केवलज्ञानके प्रगट होनेपर अहंत भगवान्में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तबल यह अनन्त चतुष्टय प्रगट होता है जिससे कि केवलज्ञानी, अनन्तज्ञानी, अनन्तदर्शनधारी, अनन्तसुखी और अनन्त आत्मिकशक्ति सम्पन्न होते हैं। तदनुसार केवली भगवान्को कवलाहारी माननेवाले श्वेतांबर सम्प्रदायके समक्ष यह प्रश्न स्वयमेव खडा हो जाता है कि " जब केवलज्ञानी पूर्णतया अनन्त सुखी होते हैं तो फिर उनको भूखका दुःख किस प्रकार हो सकता है जिसको कि दूर करनेके लिये उन्हें विवश ( लाचार ) होकर साधारण मनुष्योंके समान भोजन अवश्य करना पडे ?
इस प्रश्नका उत्तर यदि कोई श्वेताम्बरीय सज्जन यह दें जैसा कि कतिपय सज्जनोंने दिया भी है कि “ केवली वास्तवमें अनन्त सुखी ही होते हैं। उनके मात्माको लेशमात्र भी दुख नहीं होता। अतएव वे उस दुःखका अनुभव भी नहीं कर सकते । हां, केवली भगवानको असाता वेदनीय कर्मके उदयसे भूख अवश्य लगती है किन्तु वह भूखका दुःख शारीरिक होता है-उनके शरीरको दुःख होता है आत्माको नहीं । इस कारण भूख लगने के समय भी केवली भगवान् अपने आत्माके अनन्त सुखका अनुभव
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