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(१७) खात विलोकन लोकालोक,
देखि कुद्रव्य भखे किमि ज्ञानी ? तथा अहंत भगवानको समस्त लोक अलोक को हाथकी रेत्वा समान बिना उपयोग लगाये ही स्पष्ट जानने वाला केवलज्ञान प्राप्त हो चुका है जिसके कारण वे लोकमें भोजनके अन्तराय उत्पन्न करने वाले अनन्त अपवित्र पदार्थोंको प्रत्येक समय विना कुछ प्रयत्न किये साफ देख रहे हैं फिर वे भोजन कर भी कैसे सकते हैं ?
___ साधारण मुनि भी मांस, रक्त, पीव, गीला चमडा, गीली हड्डी किसी दुष्ट के द्वारा किसी जीवका मारा जाना देखकर, शिकारी आत. तायी आदि द्वारा सताये गये जीवोंका रोना विलाप सुनकर भोजन को छोड देते हैं फिर भला उनसे बहुत कुछ ऊंचे पदमें विराजमान, यथाख्यात चारित्रधारी केवलज्ञानी अपवित्र पदार्थोंको तथा दुःखी जीवोंको केवलज्ञानसे स्पष्ट जान कर भोजन किस प्रकार कर सकते हैं ! मर्थात् अंतराय टालकर निर्दोष माहार किसी तरह नहीं कर सकते । ___ मांस, खून, पीव, निरपराध जीवका निर्दयतासे कत्ल ( वध ) आदि देखकर भोजन करते रहना दुष्ट मनुष्यका कार्य है, क्या केवलज्ञानी सब कुछ जान देख कर भी भोजन करते हैं सो क्या वे भी वैसे
__ केवलज्ञानीके असाताका उदय कैसा है !
कोई भी कर्म हो अपना अच्छा बुरा फल बाह्य निमित्त कारणों के मिलनेपर ही देता है। यदि कर्म की प्रकृति अनुसार बाहरी निमित्त कारण न होवें तो कर्म विना फल दिये झड जाता है। जैसे किसी मनुष्य ने विष खाकर उसको पचा जाने वाली प्रबल औषध भी खाली हो तो वह विष अपना काम नहीं करने पाता है ।
कर्मसिद्धान्तके अनुसार इस बातको यों समझ लेना चाहिये कि देवगतिमें ( स्वर्गों में ) असाता वेदनीय कर्मका भी उदय होता है। महमिन्द्र भादि उच्च पद प्राप्त देवोंके भी पूर्व बंधे हुए असाता वेदनीय कर्मका स्थिति अनुसार उदय होता है किन्तु
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