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उनके पास बाहरके समस्त कारणकलाप सुखजनक हैं इस कारण वह असाता वेदनीय कर्म भी दुख उत्पन्न नहीं करने पाता । साता वेदनीय रूप होकर चला जाता है।
तथा नरकोंमें नारकी जीवोंके समय अनुसार कभी साता वेदनीय कर्मका भी उदय होता है किन्तु वहांपर द्रव्य क्षेत्रादिकी सामग्री दुःखमनक ही है इस कारण वह सातावेदनीय कर्म नारकियोंको मुख उत्पन्न नहीं कर पाता; दुख देकर ही चला जाता है।
एवं तेरहवें गुणस्थानमें यानी केवलज्ञानियोंके ४२ कर्म प्रकृतियों का उदय होता निनमें से मस्थिर, भशुभ, दुःस्वर, अप्रशस्त विहामोगति तथा तैजसमिश्र आदि अनेक ऐसी अशुभ प्रकृतियां हैं जो कि उदयमें तो आती हैं किन्तु वाहरी कारण अपने योग्य न मिल सकनेके कारण विना बुरा फल दिये चली जाती हैं । क्योंकि अस्थिर प्रकृतिके उदयसे केवलज्ञानीके धातु उपधातु अपने स्थानसे चलायमान होकर शरीरको विगाडते नहीं हैं । (श्वेताम्बरीय सिद्धांत अनुसार) न पशुभ नाम कर्मके उदयसे केवलज्ञानीका शरीर स्वराब हो जाता है और न दुःस्वर प्रकृतिके उदयसे केवलज्ञानीका असुन्दर स्वर हो पाता है। इत्यादि.
इसी प्रकार केवली भगवानके यद्यपि असाता वेदनीय कर्मका उदय होता है किन्तु केवलज्ञानी के निकट दुःख उत्पन्न करनेवाला कोई निमित्त नहीं होता है, सब सुख उत्पन्न करनेवाले ही कारण होते हैं । अनन्त सुख प्रगट हो जाता है । इसी कारण वह असाता बेदनीय निमित्त कारणों के अनुसार सातारूपमें होकर विना दुख दिये चला जाता है।
श्री नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्त चक्रवर्तीने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्ड ग्रंथकी २७४-२७५ वीं गाथाओंमें कहा है कि
समयडिदिगो बंधो सादस्सुदयप्पिगो जदो तस्स। तेण असादस्सुदओ सादसावेण परिणमदि ॥ २७४ ॥ एदेण कारणेणदु सादस्सेव हु णिरतरो उदओ। तेणासादणिमित्ता परीसहा जिणवरे णत्थि ।। २७५ ॥
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