Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, १, १५. ]
सामित्ताणुगमे इंदियमग्गणा
[ ६१
ण, जदि ते सिद्धत्तस्स कारणं तो सच्चे जीवा सिद्धा होज्ज, तेसिं सव्वजीवेसु संभवोवलंभा । तम्हा खड्याए लडीए सिद्धो होदि त्ति घेत्तनं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिओ बीइंदिओ तीइंदिओ चउरिंदिओ पंचिंदिओ णाम कथं भवदि ? ॥ १४ ॥
एत्थ णामादिणिक्खेवे णेगमादिणए ओदइयादिभावे च अस्सिदूण पुच्वं व इंदियस्स चालणा कायव्वा ।
खओवसमियाए लडीए ॥ १५ ॥
free लिंगमिंदिi | इंदो जीवो, तस्स लिंग जाणावयं सूचयं जं तर्मिदियमिदि वृत्तं होदि । कधमेईदियत्तं खओवसमियं ? उच्च दे - पस्सिंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं संतोवसमेण देसघादिफदयाणमुदएण चक्खु-सोद-घाण - जिब्भिदियावरणाणं देसघादिफदयाणमुदयक्खण तेसिं चैव संतोवसमेण तेसिं सव्वघादिफद्दयाणमुदएण जो उप्पण्णो जीव परिणामो सो खओवसमिओ बुच्चदे | कुदो ? पुब्बुत्ताणं फक्ष्याणं खओवसमेहि
समाधान- नहीं, क्योंकि, यदि सत्व प्रमेयत्व आदि सिद्धत्वके कारण हैं, तब तो सभी जीव सिद्ध हो जायेंगे, क्योंकि, उनका अस्तित्व तो सभी जीवों में पाया जाता है । इसलिये क्षायिक लब्धिसे सिद्ध होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय जीव कैसे होता है ? ॥ १४ ॥
यहां पर नामादि निक्षेपों, नैगमादि नयों और औदायिकादि भावोंका आश्रय लेकर पूर्वानुसार इन्द्रियकी चालना करना चाहिये ।
क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव सिद्ध होता है ॥ १५ ॥
इन्द्रके चिह्नको इन्द्रिय कहते हैं । तात्पर्य यह कि इन्द्र जीव है और उसका जो चिह्न अर्थात् ज्ञापक या सूचक है वह है इन्द्रिय |
शंका - एकेन्द्रियत्व क्षायोपशमिक किस प्रकार होता है ?
समाधान - कहते हैं । स्पर्शेन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके सरवोपशमसे, उसीके देशघाती स्पर्धकोंके उदयले; चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिव्हा इन्द्रियावरण कर्मोंके देशघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे, उन्हीं कर्मोंके सत्त्वोपशमसे तथा सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयसे जो जीवपरिणाम उत्पन्न होता है उसे क्षयोपशम कहते हैं, क्योंकि, वह भाव पूर्वोक्त स्पर्धकोंके क्षय और उपशम भावोंसे ही उत्पन्न होता है । इसी जीव
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