Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३८२) छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[ २, ७, २४. मगुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं भंगो ॥२४॥
वट्टमाणं खेत्तं । सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेअदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो तीदे काले फोसिदो । मारणंतिय-उववादहि सबलोगो । तेण पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं भंगो ण होदि ति ? ण, दव्यट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे दोसाभावादो ।
देवगदीए देवा सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥ २५ ॥ सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोइस भागा वा देसूणा ॥२६॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे- वट्टमाणपरूवणाए खेत्तभंगो। सत्थाणेण देवेहि तिण्हं
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मनुष्य अपर्याप्तोंके स्पर्शनका निरूपण पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है ।। २४ ॥
मनुष्य अपर्याप्तोंके वर्तमानकालिक स्पर्शनका निरूपण क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंकी अपेक्षा चार लोकोंका असंख्यातवां भाग व मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग अतीत कालमें स्पृष्ट है । मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादपदोंसे सर्व लोक स्पृष्ट है।
शंका-इसी कारण मनुष्य अपर्याप्तोंके स्पर्शनको पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान कहना ठीक नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर वैसा कहने में कोई दोष नहीं है।
देवगतिमें देव स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पर्श करते हैं ? ॥ २५ ।। यह सूत्र सुगम है।
देव स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं ॥ २६ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते है-वर्तमानकालिक स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। देवों, द्वारा स्वस्थानकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग,
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