Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ७, १९१. असंजदतुल्ला ण होति, अचक्खुदंसणीसु तेजाहारपदाणगुवलंभादो ।
ओहिदसणी ओहिणाणिभंगो ॥ १९१ ॥ सुगमं । केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ १९२ ॥ एदं पि सुगमं ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सियाणं असंजदभंगो ॥ १९३ ॥
सुगममेदं । तेउलेस्सियाणं सत्थाणेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ १९४ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १९५॥ एत्थ खेत्तवण्णणा कायया वट्टमाणविवक्खाए ।
अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके तुल्य नहीं है, क्योंकि अचक्षुदर्शनियों में तैजस और आहारक समुद्घात पद पाये जाते हैं ।
अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है ।। १९१ ॥ यह सूत्र सुगम है। केवलदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा केवलज्ञानियों के समान है ॥ १९२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
लेश्यामार्गणाके अनुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है ॥ १९३ ।।
यह सूत्र सुगम है। तेजोलेश्यावाले जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ।। १९४ ॥ यह सूत्र सुगम है।
तेजोलेश्यावाले जीवों द्वारा स्वस्थान पदोंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ १९५ ।। . यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालको विवक्षा है।
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