Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, ८, ३६.] णाणाजीवेण कालाणुगमे संजममागणा
[४७३ णस्थि एत्थ बत्तव्यं, सुगमत्तादो ।
संजमाणुवादेण संजदा सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा संजदासजदा असंजदा केवचिरं कालादो हॉति ? ॥ ३३ ॥
मुगभं । सबद्धा ॥३४॥ एवं पि सुगमं । मुहमसांपराइयसुद्धिसंजदा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ३५॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमयं ॥ ३६॥
कुदो ? उवसंतकसायस्स अणियट्टिवादरसांपराइयपविट्ठस्स वा सुहुमसांपराइयगुणहाणं पडिवण्णबिदियसमए कालं करिय देवेसुबवण्णस एगसमयस्सुवलंभादो ।
यहां कुछ व्याख्यानके योग्य नहीं है, क्योंकि, यह सूत्र सुगम है ।
संयममार्गणाके अनुसार संयत, सामायिकछेदोपस्थापनशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ३३ ॥
यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव सर्व काल रहते हैं ॥ ३४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीव कितते काल तक रहते हैं ? ॥३५॥ यह सूत्र सुगम है। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीव जघन्यसे एक समय रहते हैं ॥३६॥
क्योंकि, उपशान्तकषाय वा अनिवृत्तिवादरसाम्परायप्रविष्ट जीवोंके सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें मरण कर देवों में उत्पन्न होनेपर एक समय जघन्य काल पाया जाता है।
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