Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, ११, १५०.
अपात्रहुगागमे णाणमग्गणा
सुगममेदं ।
माणसाई अनंतगुणा ॥ १४६ ॥
गुणगारो सञ्चजीवाणं पढमवग्गमूलादो अनंतगुणा । सेसं सुगमं । को कसाई विसेसाहिया ॥ १४७ ॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? अगंतो माणकसाईणं असंखेज्जदिभागो । को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
मायकसाई विसेसाहिया ॥ १४८ ॥
एत्थ विसेसपमाणं पुत्रं व वत्तव्वं । लोभकसाई विसेसाहिया ॥ १४९ ॥ सुगमं ।
णाणाणुवादेण सव्वत्थोवा मणपज्जवणाणी ॥ १५० ॥
कुदो ? संखेज्जतादो ।
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यह सूत्र सुगम है ।
अकषायी जीवोंसे मानक पायी जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १४६ ॥
गुणकार सर्व जीवोंके प्रथम वर्गमूलसे अनन्तगुणा है । शेष सूत्रार्थ सुगम है मानकषायियों से क्रोधकषायी जीव विशेष अधिक हैं || १४७ ॥
विशेष कितना है ? मानकषायी जीवोंके असंख्यातवें भाग अनन्तप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है ।
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Phraseria मायाकपायी जीव विशेष अधिक हैं ।। १४८ ॥ यहां विशेषका प्रमाण पूर्वके समान कहना चाहिये । मायाकषायियों से लोभकषायी विशेष अधिक हैं ॥ १४९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
ज्ञानमार्गणा के अनुसार मनःपर्ययज्ञानी जीव सबमें स्तोक हैं ।। १५० ।।
क्योंकि, वे संख्यात हैं ।
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