Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, ११, १९०.1 अप्पाबहुगाणुगमे सम्मत्तमांगणा
(५७१ भवियाणुवादेण सव्वत्थोवा अभवसिद्धिया ॥ १८६ ॥ कुदो ? जहण्णजुत्ताणंतप्पमाणत्तादो । णेव भवसिद्धिया णेव अभवसिद्धिया अणंतगुणा ॥ १८७ ॥ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो । कारणं सुगमं । भवसिद्धिया अणंतगुणा ॥ १८८॥ सुगमं । सम्मत्ताणुवादेण सव्वत्थोवा सम्मामिच्छाइट्ठी ॥ १८९ ॥
सासणसम्माइट्ठी सव्वत्थोवा त्ति किण्ण परूविदं ? ण, विवरीयाहिणिवेसेण सेसि समाणत्तं पडुच्च मिच्छाइट्ठीणमंतभावादो, भूदपुब्वियं णयं पडुच्च सम्माइट्ठीणमंतभावादो वा । सेसं सुगम ।
सम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १९० ॥ गुणगारो आवलियाए असंखेजदिभागो। कारणं सुगमं ।
भव्यमार्गणाके अनुसार अभव्यसिद्धिक जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १८६ ॥ क्योंकि, वे जघन्य युक्तानन्तप्रमाण हैं ।
अभव्यसिद्धिकोंसे न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक ऐसे सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १८७॥
गुणकार अभव्यसिद्धिकोंसे अनन्तगुणा है । कारण सुगम है। उक्त जीवोंसे भव्यसिद्धिक जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १८९ ॥ शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सबमें स्तोक हैं, ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि, विपरीताभिनिवेशसे उनकी समानताको अपेक्षा कर मिथ्यादृष्टियों में अन्तर्भाव हो जाता है, अथवा भूतपूर्व नयका आश्रयकर सम्यग्दृष्टियों में उनका अन्तर्भाव हो जाता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंसे सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यात गुणे हैं ।। १९० ॥ गुणकार भाषलीका असंख्यातयां भाग है। कारण सुगम है।
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