Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, ११, १०७. केत्तियमेत्तो विसेसो ? बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरेहि बादरणिगोदपदिट्ठिदेहि य पज्जत्तमेत्तो।
जोगाणुवादेण सव्वत्थोवा मणजोगी ॥ १०७ ॥ कुदो ? देवाणं संखेज्जदिभागप्पमाणत्तादो । वचिजोगी संखेज्जगुणा ॥ १०८ ॥
कुदो? पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण वचिजोगिअवहारकालेण संखेज्जपदरंगुलमेत्ते मणजोगिअवहारकाले भागे हिदे संखेज्जरूवोवलंभादो ।
अजोगी अणंतगुणा ॥ १०९ ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो ।
विशेष कितना है ? बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर तथा बादर-निगोद प्रतिष्ठित जीवों सहित पर्याप्त शरीर मात्र आश्रित जीवराशिप्रमाण वह विशेष है।।
विशेषार्थ-ऊपर सूत्र ७५ की टोकामें बतलाया जा चुका है कि प्रस्तुत सूत्रोंमें वनस्पतिकायिक जीवोंके भीतर उन एकेन्द्रिय जीवोंका समावेश नहीं किया गया जो स्वयं अप्रतिष्ठित अर्थात् प्रत्येककाय होते हुए भी बादर निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित हैं। जीवकाण्ड गाथा १९९ के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों तथा केवली, आहारक व देव-नारकियों के शरीरोंको छोड़ शेष समस्त संसारी पर्याप्त जीवोंके शरीर निगोदिया जीवोंसे प्रतिष्ठित हैं। अतएव निगोद जीवोंके प्रमाण प्ररूपणमें टीकाकार द्वारा बतलाये गये विशेष द्वारा उन्हीं सब राशियोंका ग्रहण किया गया प्रतीत होता है।
योगमार्गणाके अनुसार मनोयोगी जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १०७ ॥ क्योंकि, वे देवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनोयोगियोंसे वचनयोगी संख्यातगुणे हैं ॥ १०८ ॥
क्योंकि, प्रतरांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण वचनयोगि-अवहारकालसे संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण मनोयोगि-अवहारकालको भाजित करनेपर संख्यात रूप उपलब्ध
वचनयोगियोंसे अयोगी जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १०९ ॥ गुणकार कितना है ? अभव्यसिद्धिक जीवोंसे अनन्तगुणा है।
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