Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ७, १८५. मावादो । एसो वासद्दत्थो । तिरिक्ख-मणुस्सेहि पुण सबलोगो फोसिदो, तेसिं लोगणालीए बाहिमभंतरे च मारणंतिएण गमणुवलंभादो ।
उववादं सिया अस्थि सिया णत्थि ॥ १८५॥ __ अत्थित्त-पत्थित्ताणं चक्खुदंसणविसयाणं एक्कम्हि जीवे एक्ककालम्हि परोप्परपरिहारलक्खणविरोहो व्व सहअणवट्ठाणलक्खणविरोहाभावपदुप्पायणटुं सियासदो ठविदो। कधमविरोहो त्ति जाणावणमुत्तरसुत्तं भणदि
लद्धिं पडुच्च अस्थि, णिवत्तिं पडुच्च णत्थि ॥ १८६॥
लद्धी चक्खिदियावरणखओवसमो, सो अपज्जत्तकाले वि अस्थि, तेण विणा बल्झिदियणिव्वत्तीए अभावादो। णिव्यत्ती णाम चक्खुगोलियाए णिप्पत्ती, सा अपजत्तकाले णत्थि, अणिप्पत्तीए णिप्पत्तिविरोहादो । जेण सरूवेण चक्खुदंसणमस्थि तेणेव सरूवेण जदि तस्स णस्थित्तं परूविज्जदि तो विरोहो पसज्जदे । ण च एवं, तम्हा सहअणवट्ठाणलक्खणो विरोहो णत्थि त्ति ।
यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है। किन्तु सिर्यच व मनुष्योंके द्वारा सर्व लोक स्पृष्ट है, क्योंकि, लोकनालीके बाहिर और भीतर मारणान्तिकसमुद्घातसे उनका गमन पाया जाता है।
चक्षुदर्शनी जीवोंके उपपाद पद कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता है ॥ १८५॥
एक जीवमें एक कालमें चक्षुदर्शनविषयक अस्तित्व और नास्तित्वके परस्पर. परिहारलक्षण विरोधके समान सहानवस्थानलक्षण विरोधका अभाव बनलाने के लिये सूत्र में स्यात् ' शब्दका उपादान किया है । उक्त अस्तित्व व नास्तित्व में अविरोध कैसे है, इस बातके शापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
चक्षुदर्शनी जीवोंके लब्धिकी अपेक्षा उपपाद पद है, किन्तु निर्वृतिकी अपेक्षा वह नहीं है ॥ १८६ ॥
चक्षुइन्द्रियावरणके क्षयोपशमको लब्धि कहते हैं । वह अपर्याप्तकालमें भी है, क्योंकि, उसके विना बाह्य निर्वृति नहीं होती। गोलकरूप चक्षुकी निष्पत्तिका नाम निर्वति है । वह अपर्याप्तकाल में नहीं है, क्योंकि, अनिष्पत्तिका निष्पत्तिसे कि जिस रूपसे चक्षुदर्शन है उसी रूपसे यदि उसका नास्तित्व कहा जाय तो विरोधका प्रसंग होगा। किन्तु ऐसा है नहीं, अतएव यहां सहानवस्थानलक्षण विरोध नहीं है।
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