Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, ३, १०८.] एगजीवेण अंतराणुगमे संजदादीणमंतर
[ २२१ णिय पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण ओहिणाणमुप्पाइय तत्थेव तदंतरं पि समाणिय अंतोमुहुत्तेण केवलणाणमुप्पाइय अबंधभावं गदस्स उवड्डपोग्गलपरियटुंतरुवलंभादो ।
एवं मणपज्जवणाणस्स वि । णवरि उवसमसम्मत्तेण सह मणपज्जवणाणस्स विरोहादो पढमसम्मत्तद्धं वोलाविय मुहुत्तपुधत्ते गदे मणपज्जवणाणमादीए अंतरस्स अवसाणे च उपाएदव्वं ।
केवलणाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०६ ॥ सुगमं । णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ १०७ ॥ कुदो ? केवलणाणे समुप्पण्णे पुणो तस्स विणासाभावादो ।
संजमाणुवादेण संजद-सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजद-संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०८॥
सुगमं ।
पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत करके उसने अवधिज्ञान उत्पन्न कर लिया और उसी समय अवधिज्ञानका अन्तर समाप्त किया। फिर उसने अन्तर्मुहूर्तकालसे केवलज्ञान उत्पन्न कर अवन्धकभाव प्राप्त कर लिया । ऐसे जीवके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिः शानका उपार्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है।
इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानका भी उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। केवल विशेषता यह है कि उपशमसम्यक्त्वसे मनःपर्ययज्ञानका विरोध होनेके कारण प्रथमोपशमसम्यक्त्वका काल समाप्त कर मुहूर्तपृथक्त्व व्यतीत होजानेपर आदि में व अन्तरके अन्तमें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न कराना चाहिये।
केवलज्ञानियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १०६ ॥ यह सूत्र सुगम है। केवलज्ञानियोंके ज्ञानका कभी अन्तर ही नहीं होता, वह ज्ञान निरन्तर होता
क्योंकि, केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर फिर उसका विनाश नहीं होता।
संयममार्गणानुसार संयत, सामायिक व छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥१०८॥
यह सूत्र सुगम है।
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