Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, ३, १४७. ]
जीवेण अंतराग असण्णीणमंतरं
जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १४३ ॥
एदं पि सुगमं ।
कस्से अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियहूं ॥ १४४ ॥
सणीहिंतो असणणं गंतॄण असण्णडिदिमच्छिय सण्णीसुप्पण्णस्स आवलियाए असंखेज्जदि भाग मे तपोग्गलपरियडुंतरुवलंभादो ।
असण्णीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १४५ ॥
सुगमं ।
जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १४६ ॥
एदं पि सुगमं ।
उक्करसेण सागरोवमसदपुधतं ॥ १४७ ॥
असण्णीहिंतो सण्णीणं गंतॄण सष्णिट्टिदि भमिय' असण्णी सुप्पण्णस्स सागरोवमसदपुधत्तमेतं तरुत्रलंभादो ।
संज्ञी जीवोंका अन्तर जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १४३ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
संज्ञी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्येय पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है। ॥ १४४ ॥
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क्योंकि, संक्षियोंसे असशियों में जाकर और वहां असंशीकी स्थितिप्रमाण रहकर संक्षियों में उत्पन्न हुए जीवके आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुलपरिवर्तनप्रमाण अन्तर प्राप्त होता है ।
असंज्ञी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। १४५ ।।
यह सूत्र सुगम है।
असंज्ञी जीवोंका अन्तर जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ १४६ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
असंज्ञी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण है ॥ १४७ ॥
क्योंकि, असंक्षियोंसे संज्ञियोंमें जाकर और वहां संज्ञीकी स्थितिप्रमाण भ्रमण कर असंक्षियोंमें उत्पन्न हुए जीवके सागरोपमशतपृथक्त्वमात्र अन्तर प्राप्त होता है ।
अ- कामत्योः 'भवि' इति पाठः ।
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