Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, ६, ९५.] खेताणुगमे दंसणमग्गणा
। ३५५ छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतियपदेण एवं चेव । णवीर माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे त्ति वत्तव्यं । एवं परिहारसुद्धिसंजदाणं । णवीर तेजाहारं णत्थि । एवं सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदाणं । णवरि विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-उचियपदाणि वि णत्थि । सत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेयण-कसाय-बेउव्यिय-मारणंतियपदेहि संजदासजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे त्ति भेदुवलंभादो।।
असंजदा णqसयभंगो ॥ ९३॥ णवरि वेउब्धियस्स तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे। सेसं सुगमं ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी सत्थाणेण समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ९४ ॥
सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ९५ ॥
इन पदोंकी अपेक्षा सामायिक छदोपस्थापनशुद्धिसंयत जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकपदकी अपेक्षा भी इसी प्रकार ही क्षेत्रका निरूपण है । विशेष इतना है कि मारणान्तिकसमुद्धातगत जीव मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं ऐसा कहना चाहिये । इसी प्रकार परिहारशुद्धिसंयत जीवों का भी क्षेत्र है । विशेषता केवल इतनी है कि इनके तैजस और आहारकसमुद्घात नहीं होते । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंका भी क्षेत्र है। विशेष इतना है कि इनके विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पद भी नहीं हैं । स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रिथिकसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदोंसे संयतासंयत जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, इस प्रकार भेद पाया जाता है।
असंयत जीवोंका क्षेत्र नपुंसकवेदियोंके समान है ॥ ९३ ॥
विशेष इतना है कि वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त असंयत जीव तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
दर्शनमार्गणानुसार चक्षुदर्शनी जीव स्वस्थानसे और समुद्घातसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ९४ ॥
यह सूत्र सुगम है। चक्षुदर्शनी जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यात भागमें रहते हैं ॥ ९५ ॥
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