Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३७०] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ७, ६. पुव्वं व जाणिदूण वत्तव्वं । कधं छचोद्दसभागा मारणं जुज्जदे १ ण, तिरिक्ख-णेरइयाणं सव्वदिसाहितो आगमण-गमणसंभवादो।
पढमाए पुढवीए णेरइया सत्थाण-समुग्घाद-उववादपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? ॥६॥
एत्थ चेवकारो ण अज्झाहारेयव्यो, अवहारणाभावादो । जे पढमाए पुढवीए णेरइया तेहि सत्थाण-समुग्घाद-उववादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदमिदि एत्थ संबंधो कायव्यो । सेसं सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥७॥
एदेण देसामासियसुत्तेण सूइदत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउव्यिय-मारणंतिय-उववादपदेहि वट्टमाणकालमस्सिदूण परू
समान जानकर कहना चाहिये ।
शंका - मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा छह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कैसे योग्य है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, तिर्यंच व नारकी जीवोंका सब दिशाओंसे आगमन और गमन सम्भव है ।
। प्रथम पृथिवीमें नारकी जीवोंके द्वारा स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदोंकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? ॥६॥
यहां एवकारका अध्याहार नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अवधारण अर्थात् निश्चयका अभाव है । जो प्रथम पृथिवीमें नारकी जीव हैं उनके द्वारा स्वस्थान, समुद्धात *और उपपाद पदोंसे कितना क्षेत्र स्पृष्ट है, इस प्रकार यहां सम्बन्ध करना चाहिये । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
प्रथम पृथिवीके नारकियों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है ॥ ७ ॥
इस देशामर्शक सूत्रके द्वारा सूचित अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार हैस्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, पैक्रियिकसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात तथा उपपाद पदोंकी अपेक्षा वर्तमान कालका आश्रय कर स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । स्वस्थानस्वस्थान, विहार
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१ प्रतिष्ट्र भागे ' इति पाठः।
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२ आप्रतौ — उववादपरिणदेहि ' इति पाठः ।
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