Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३०८) छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[२, ६, ८. मुवसंहरिय बिदियदंडट्ठिदजीवे इच्छिय अवरो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्यो।
पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? उस्सेधघणंगुले पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे एगखंडमेत्तोगाहणादो। मारणंतिय-उववादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? दो-तिष्णिपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत भागहाराणं जहाकमेण मारणंतिय-उववादवेत्तेसु उवलंभादो । सेसं सुगमं ।
मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी सत्थाणेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ८॥
एत्थ सत्थाणणिदेपेण सत्थाणमत्थाण-विहारवदिमत्थाणाणं गहणं, सत्थाणतणेण दोण्हं भेदाभावादो । सेसं सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिमागे ॥९॥
दण्डका उपसंहार कर द्वितीय दण्डमें स्थित जीवोंकी इच्छा कर अन्य पल्योपमका असंख्यातवां भाग भागहार स्थापित करना चाहिये ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव स्वस्थान, बेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त होकर चार लोकों के असंख्यातवें भाग में तथा अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, उत्सेध घनांगुलको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर एक खण्डमात्र पंचन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंकी अवगाहना लब्ध होती है। मारणान्तिक और उपपादको प्राप्त पंचेन्द्रिय तियेच तीन लोकांके असंख्यातवे भाग में तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुण क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, पल्योपमके दो व तीन असंख्यातवें भागमात्र भागहार यथाक्रमसे मारणान्तिक और उपपाद क्षेत्रों में उपलब्ध हैं। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
__ मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी स्वस्थान व उपपाद पदमे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ८ ॥
इस सूत्रमें 'स्वस्थान के निर्देशसे स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान दोनोंका ग्रहण किया गया है, क्योंकि, स्वस्थानपनेसे दोनोंमें कोई भेद नहीं है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
उक्त तीन प्रकारके मनुष्य स्वस्थान व उपपाद पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥९॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org