Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे खुद्दा बंधो
सुगममेदं । सव्वलोए ॥ ४६ ॥
कुदो ? सव्वलोगं निरंतरेण वाविय अवड्डाणादो । बादराणं व सुहुमाणं लोगस्सेगदेसे अवद्वाणं किण्ण होज्ज १ ण, 'सुहुमा सव्वत्थ जल-थलागासेसु होंति' त्ति वयणेण सह विरोहादो ।
बादरवणफदिकाइया बादरणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेते ? ॥ ४७ ॥
सुगमं ।
लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ४८ ॥
देसामा सिस्सेदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा
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[ २, ६, ४६.
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोदजीव, सूक्ष्म निगोदजीव पर्याप्त और सूक्ष्म निगोदजीव अपर्याप्त, ये स्वस्थान, समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ४५ ॥
तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे,
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ॥ ४६ ॥
क्योंकि, निरन्तररूपसे सर्व लोकको व्याप्त कर इनका अवस्थान है ।
शंका-बादर जीवोंके समान सूक्ष्म जीवोंका लोकके एक देशमें अवस्थान क्यों नहीं होता ?
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समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर 'सूक्ष्म जीव जल, थल व आकाशमें सर्वत्र होते हैं ' इस वचनसे विरोध होगा ।
बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोदजीव, बादर निगोदजीव पर्याप्त और बादर निगोदजीव अपर्याप्त स्वस्थानसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ४७ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उक्त जीव स्वस्थानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ४८ ॥ इस देशामर्शक सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है
:- उक्त जीव
२ प्रतिषु च इति पाठः ।
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