Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३४२ ]
छक्खंडागमे खुदाबंधी
[ २, ६, ५६.
कुदो? जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततसरासिस्स गहणादो | तेजाहारपदेहि काय जोगिणो चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जदिभागे । दंड-कवाड - पदर- लोगपूरणेहि कायजोगिणो ओघ मंगो ।
ओरालियकायजोगी सत्थाणेण समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? ॥५६॥ सुगमं । सव्वलो ॥ ५७ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे - सत्थाण- चेयण - कसाय - मारणंतियेहि सव्वलोगे । कुदो ? सव्वत्थावद्वाणाविरोहिजीवाणमोरालियकाय जोगीणं मारणंतियादो । विहारपदेण तिह लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ! तसणालि' मोत्तूणण्णत्थ विहाराभावादो । वेउच्चिय- तेजा - दंड समुग्धादगदा चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । णवीर तेजासमुग्धादगदा माणुस
असंख्यातवें भागमात्र सराशिका यहां ग्रहण है । तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंसे काययोगी जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाईद्वीप के संख्यातवें भाग में रहते हैं । दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातकी अपेक्षा काययोगियोंके क्षेत्रका निरूपण ओधके समान है ।
औदारिककाययोगी जीव स्वस्थान व समुद्घातकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ५६ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
औदारिककाययोगी जीव स्वस्थान व समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक में रहते हैं
॥ ५७ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा उक्त जीव सर्व लोक में रहते हैं, क्योंकि सर्वत्र अवस्थानके अविरोधी औदारिककाययोगी जीवोंके मारणान्तिकसमुद्घात होता है । विहार पदकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग में, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, त्रसनालिको छोड़कर उक्त जीवोंका अन्यत्र विहार नहीं है । वैक्रियिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और दण्डसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । विशेष इतना है कि तैजसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव मानुषेक्षत्र के संख्यातवें भागमें
१ प्रतिषु ' तसरासि ' इति पाठः ।
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