Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३२८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ६, ३.. माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । कवाडगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । मारणंतियसमुग्धादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितों असंखेज्जगुणे । एदेसि खेत्तविण्णासो कायव्यो । लोयस्स असंखेजदिभागो ति णिद्देसेण सूइदत्था एदे। अधवा लोगस्स असंखेज्ज. भागा, वादवलयं मोनूण पदरसमुग्धादे सेसासेसलोगमेत्तागासपदेसे विसप्पिय विदजीवपदेसुवलंभादो । सबलोगे वा, लोगपूरणे सबलोगागासं विसप्पिय हिदजीवपदेसाणमुवलंभादो। ___पंचिंदियअपज्जत्ता सस्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ३०॥
एत्थ विहारखदिसत्थाणं वेउब्धियसमुग्घादो च णत्थि । सेसं सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३१ ॥ एवं देसामासियसुत्तं, तेणेदेण सूइदत्थो वुच्चदे । तं जहा-सत्थाण वेयण
गुणे क्षेत्र में रहते हैं। कपाटसमुद्घातको प्राप्त वे ही जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । इनका क्षेत्रविन्यास जानकर करना चाहिये । 'लोकके असंख्यातवें भागमें रहते है' इस निर्देशसे सूचित अर्थ ये है। अथवा उक्त जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण है, क्योंकि, प्रतरसमुद्घातमें वातवलयको छोड़कर शेष समस्त लोकमात्र आकाशप्रदेशमें फैलकर स्थित जीवप्रदेश पाये जाते हैं। अथवा सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, लोकपूरणसमुद्घातमें सर्व लोकाकाशमें फैलकर स्थित जीवप्रदेश पाये जाते हैं ।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ३०॥
पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंमें विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात नहीं है । शेष सूत्रार्थ सुगम है।
पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥३१॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थको कहते हैं । वह
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