Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, ६, १७.] खेत्ताणुगमे देवखेत्तपरूवर्ण
[ ३१७ लोगंते ठाइदण हेट्ठा गंतूग एगविग्गहं करिय तिरिच्छेण रज्जूर संखेज्जदिभागं गंतूगुप्पण्णाणं विदियदंडायामो सेडीए संखेज्जदिभागमेत्तो लब्भदि त्ति णेदं पि घडदे, तेसिं सुटु थोवत्तादो । तं कुदो वगम्मदे ? तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो त्ति वक्खाणाइरियवयणादो । ण दोण्णि विग्गहे काऊणुप्पण्णाणं विदिय-तदियदडाणं संजोगो सेडीए संखेज्जदिभागायामो सेडिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदएगखंडा. यामो वा लब्भदि त्ति वोत्तुं जुत्तं, कंडुज्जुबवट्ठाए सव्वदिसाहितो आगंतूण एगविग्गहं काऊण उप्पज्जमाणजीहितो दो विग्गहे कादूग उप्पज्जमाणजीवाणमसंखेज्जदिभागत्तादो। तदो भवणवासियाणमुत्रवादखेत्तं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो त्ति सिद्धं । मारणंतियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे णर-तिरियलोगादो' असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? सत्यागादो अद्वरज्जुमेत्तं तिरिच्छेण गंतूग एगविग्गहं करिय संखज्जरज्जूओ उर्दू गंतूण सगउप्पत्तिहाणं पत्ताणं तदुवलंभादो । वाणवेतर-जोदिसियाणं देवगदिभंगो
लोकान्तमें स्थित होकर नीचे जाकर एक विग्रह करके तिर्यग्रूपसे राजुके संख्यातवें भाग जाकर उत्पन्न होनेवालोंके द्वितीय दण्डका आयाम जगश्रेणीके संख्यातवें भागमात्र प्राप्त है, यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, वे बहुत थोड़े हैं।
शंका-यह कहांसे जाना जाता है ?
समाधान-' उपपादगत भवनवासियोंका क्षेत्र तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग है ' इस प्रकार व्याख्यानाचार्योंके वचनसे जाना जाता है। दो विग्रह करके उत्पन्न हुए जीवोंके द्वितीय व तृतीय दण्डके संयोगमें जगश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण आयाम, अथवा जगश्रेणीको पल्योपमके असंख्यातवें भागले खण्डित करनेपर एक खण्डप्रमाण आयाम प्राप्त है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, बाणके समान ऋजु अवस्थामें सर्व दिशाओंसे आकर एक विग्रह करके उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षा दो विग्रह करके उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातवें भागमात्र हैं। इसलिये भवनवासियोंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, यह बात सिद्ध हुई।
मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त उक्त देव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, स्वस्थानसे अर्ध राजुमात्र तिरछे जाकर एक विग्रह करके संख्यात राजु ऊपर जाकर अपने उत्पत्तिस्थानको प्राप्त हुए उक्त देवोंके उपर्युक्त क्षेत्र पाया जाता है।
वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके क्षेत्रका प्ररूपण देवगतिके समान है, जो
१ प्रतिषु ' भागे णत्तिरियलोगादो ' इति पाठः ।
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