Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२७० ] छक्खंडागमे खुद्दा बंधी
[ २, ५, ६४. खेत्तेण बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदिय-पंचिंदिय तस्सेव पज्जत्तअपज्जत्तेहि पदरं अवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स संखज्जदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स असंखेन्जदिभागवग्गपडिभाएण ॥ ६४ ॥
एदेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो, रूवूणजहण्णपरित्ताणंतस्स पदरस्स असंखेज्जदिभागत्तविरोहादो । सूचिअंगुले आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लद्धं वग्गिदे बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियाणमवहारकालो होदि । तम्हि चेत्र विसेसाहिए कद एदेसिमपज्जत्ताणमवहारकालो होदि । सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिमागे वग्गिदे एदेसिं पज्जत्ताणमवहारकालो होदि । सेसं जीवट्ठाणम्मि वुत्तविहाणं णाऊण वत्तव्यं ।
कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइयबादरपुढविकाइय-वादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयबादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइय
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क्षेत्रकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय तथा उन्हींके पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीवों द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे, सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे और सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है । ६४ ॥
इस सूत्रके द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, एक कम जघन्य परीतानन्तको जगप्रतरके असंख्यातवें भागपनेका विरोध है । सूच्यंगुलमें आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसका वर्ग करनेपर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका अवहारकाल होता है । इसीको विशेष अधिक करनेपर इन्हींके अपर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । सूच्यंगुलके . संख्यातवें भागका वर्ग करनेपर इन्हींके पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । शेष जीवस्थानमें कहे हुए विधानको जानकर कहना चाहिये । (देखो पुस्तक ३, पृ. ३१३ आदि)।
कायमार्गणाके अनुसार पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, चादर पृथिवीकायिक, बादर जल कायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और इन्हींके अपर्याप्त, तथा सूक्ष्म पृथिवीकायिक,
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