Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३०४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधी
[२, ६, ४. तिरिक्खगदीए तिरिक्खा सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥४॥
सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतिय उववादपदाणि तिरिक्खेसु अत्थि, अवसेसाणि णत्थि । एदेहि पदेहि तिरिक्खा केवडिखेत्ते होति त्ति आसंकिय परिहारं भणदि
सव्वलोए ॥ ५॥
कुदो ? आणंतियादो । ण च ण सम्मांति त्ति आसंकणिज्ज, लोगागासम्मि अणंतोगाहणसत्तिसंभवादो। विहारवदिसत्थाणखेत्तं तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं । कुदो ? तसपज्जत्ताणं तिरिक्खाणं संखेज्जदिभागम्मि विहारुवलंभादो। तदो एदं पुध परूवेदव्वं ? ण, सत्थाणम्मि एदस्संतम्भूदत्तणेण पुध परूवणाभावादो । वेउब्बियस मुग्पादखेत्तं चदुण्हं
तियंचगतिमें तिथंच स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसंमुद्घात,मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद, ये पद तिर्यंचोंमें होते हैं, शेष नहीं होते। 'इन पदोंसे तियच कितने क्षेत्रमें रहते हैं ' इस प्रकार आशंका करके उसका परिहार कहते हैं
तिथंच जीव उक्त पदोंकी अपेक्षा सर्व लोकमें रहते हैं ? ॥ ५॥
क्योंकि, वे अनन्त हैं । अनन्त होनेसे वे लोकमें नहीं समाते हैं, ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि, लोकाकाशमें अनन्त अवगाहनशक्ति सम विहारवत्स्वस्थानक्षेत्र तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, त्रस पर्याप्त तियचोंका तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें विहार पाया जाता है।
शंका-स्वस्थानस्वस्थानसे विहारवत्स्वस्थानक्षेत्रमें विशेषता होनेके कारण इसकी पृथक् प्ररूपणा करना चाहिये ? । ....समाधान नहीं, क्योंकि, स्वस्थानमें इसका अन्तर्भाव होनेसे पृथक् प्ररूपणा नहीं की गई।
वैक्रियिकसमुद्घातका क्षेत्र चार लोकोंके असंख्यातवें भाग और मनुष्यक्षेत्रसे
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