Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२३२] छक्खंडागमे खुदावंधो
[२, ३, १३६. जुगवं घेत्तूणंतरं समाणिय अंतोमुहुत्तेण अंबंधगत्तं गदस्स उघडपोग्गलपरियटुंतरुवलंभादो । एवं वेदगसम्माइट्ठिस्स वि वत्तव्यं । णवीर अणादियमिच्छादिट्ठी उवसमसम्मत्तं घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो वेदगसम्मत्तं घेत्तूण तत्थ वि अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मिच्छत्तेण अंतरिदो त्ति वत्तव्यं । अवसाणे वि उवसमसम्मत्तादो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए अंतरं समाणदेव्यं । एवमुवसमसम्माइद्विस्स वि वत्तव्यं, सामण्णसम्माइट्ठीहिंतो भेदाभावादो । एवं सम्मामिच्छाइट्ठिस्स वि । णवरि उवसमसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छत्तं णेदण मिच्छत्तं गमिय अंतरावेदव्यो । अवसाणे वि उवसमसम्मत्तादो सम्मामिच्छत्तंगदपढमसमए अंतरं समाणिय अंतोमुहुत्तमच्छिय अबंधभावं णेयव्यो ।
खइयसम्माइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३६ ॥ सुगमं । णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ १३७ ॥ खइयसम्माइट्ठीणं सम्मत्तंतरगमणाभावादो । सासणसम्माइट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३८॥
एक साथ ग्रहण कर अन्तर को समाप्त करते हुए अन्तर्मुहूर्तसे अबन्धकत्वको प्राप्त होने पर कुछ कम अर्धपगलपरिवर्तनमात्र अन्तर प्राप्त होता है। इसी प्रकार वेदक सम्यग्दृष्टिका भी उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिये । विशेष इतना है कि अनादिमिथ्यादृष्टि उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहणकर और वहां भी अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः मिथ्यात्वसे अन्तरित होता है, इस प्रकार कहना चाहिये । अन्तमे भी उपशमसम्यक्त्वसे वदकसम्यक्त्वको प्राप्त होने के प्रथम समयमें अन्तरको समाप्त करना चाहिये । इसी प्रकार उपशमसम्यदृष्टिका भी उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिये, क्योंकि, सामान्य सम्यग्दृष्टियोंस उसके कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टिका भी उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उपशमसम्यग्दृष्टिको सम्याग्मथ्यात्वमें लेजाकर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त कराकर अन्तर कराना चाहिये। अन्त में भी उपशमसम्यक्त्वसे सम्याग्मिथ्यात्वको प्राप्त होने के प्रथम समयमें अन्तरको समाप्त कर और अन्तर्मुहूर्त रहकर अबन्धकताको प्राप्त कराना चाहिये।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १३६ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर नहीं होता, वे निरन्तर हैं ॥ १३७ ॥ क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि अन्य सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं होते। सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १३८ ॥
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