Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२२० ]
छक्डागमे खुदाबंध
[२, ३, १०५.
कुदो ? मद- सुद-ओहिणाणेसु ट्ठिददेवस्स णेरइयस्स वा मिच्छत्तं गंतूण मदिसुद-विभंग अण्णाणेहि अंतरिय पुणो मदि- सुद-ओहिणाणमागदस्स जहण्णेणतो मुहुत्तं तरुवलंभादो | एवं मणपज्जवणाणस्स वि । णवरि मणपज्जवणाणी संजदो तण्णाणं विणासिय अंतमुत्तमच्छिय तस्सेव णाणस्स पुणो आणदव्वो ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियहं देणं ॥ १०५ ॥
कुदो ? अणादियमिच्छाइट्ठिस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स पढमसमए उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय तत्थेव देव - णेरइएस विरोधाभावादो मदि-सुद-ओहिणाणाणि उप्पाइय छावलियाओ उचसमसम्मसद्धा अस्थि त्ति सासणं गंतृणंतरिय पुणो मिच्छत्तेग अद्धपोग्गल - परियङ्कं भमिय अंतेोमुहुत्तात्रसे से संसारे सम्मत्तं पडिवज्जिय मदि-सुदणाणाणमंतरं समा
क्योंकि, मति, श्रुत और अवधि ज्ञानोंमें स्थित किसी देव या नारकी जीवके मिथ्यात्वको जाकर मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान व विभंगज्ञानके द्वारा अन्तर करके पुनः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान व अवधिज्ञानमें आनेपर उक्त ज्ञानोंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर प्राप्त होता है ।
इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानीका भी जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है । केवल विशेषता यह है कि मन:पर्ययज्ञानी संयत जीव मनःपर्ययज्ञानको नष्ट करके अन्तर्मुहूर्तकाल तक उस ज्ञानके बिना रहकर फिर उसी ज्ञान में लाया जाना चाहिये ।
आभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण होता है ।। १०५ ।।
क्योंकि, किसी अनादि मिध्यादृष्टि जीवने अपने अर्धपुद्गल परिवर्तप्रमाण ( संसार शेष रहने के ) प्रथम समय में उपशमसम्यक्त्व ग्रहण किया और उसी अवस्थामें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान व अवधिज्ञान उत्पन्न किये; क्योंकि देव और नारकी जीवों में उक्त अवस्था में इनके उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं आता। फिर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवली शेष रहनेपर वह जीव सासादनगुणस्थान में गया और इस प्रकार मतिज्ञान आदि तीनों शानोंका अन्तर प्रारंभ हो गया । फिर उसी जीवने मिथ्यात्व सहित अर्धपुलपरिवर्तप्रमाण भ्रमण कर संसार के अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहनेपर सम्यक्त्वको ग्रहण कर लिया और इस प्रकार मति श्रुत ज्ञानोंका अन्तर समाप्त किया ।
१ बेइंदियाणं भंते किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! णाणी वि अण्णाणि वि । जे गाणी ते नियमा दुनाणी । तं अहा- आभिणिबोहियनाणी सुयणाणी । जे अण्णाणी ते वि नियमा दुअन्नाणी । तं जहा - मइअन्नाणी सुयअण्णाणी य । भगवती, ८, २. बेइंदियस्स दो णाणा कहं लम्भंति ? भण्णइ, सासायणं पड़च्च तस्साप जयस दो णाणा लन्गंति । प्रज्ञापना टीका | सासणभावे गाणं । कर्मग्रंथ ४, ४९.
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