Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२२८] छक्खंडागो खुदाबंधी
[२, ३, १२४. केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ १२४ ॥ ___ अंतराभावं पडि दोण्हं भेदाभावादो ।
लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-गीललेस्सिय-काउलेस्सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १२५॥
सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२६॥
कुदो ? किण्हलेस्सियस्त णीललेस्सं, णीललेस्सियस्स काउलेस्सं, काउलेस्सियस्स तेउलेस्सं गंतूण अप्पणो लेस्साए जहण्णकालेणागदस्स अंतोमुहुर्सतरुवलंभादो ।
उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १२७ ॥
कुदो ? पुव्यकोडाउओ मणुस्सो गब्भादिअहवस्साणमभंतरे छअंतोमुहत्तमस्थि त्ति किण्हलेस्साए परिणमिय आदि करिय पुणो णील-काउ-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सासु
केवलदर्शनी जीवोंके अन्तरकी प्ररूपणा केवलज्ञानी जीवोंके समान है ।।१२४॥
क्योंकि, इन दोनोंमें अन्तरका अभाव होता है, और इसकी अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है।
लेश्यामार्गणानुसार कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ १२५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है ॥ १२६ ॥
क्योंकि, कृष्णलेश्यावाले जीवके नीललेश्याम, नीललेश्यावाले जीवके कापोतलेश्याम व कापोतलेश्यावाले जीवके तेजोलेश्यामें जाकर अपनी पूर्व लेश्याम जघन्य कालके द्वारा पुनः वापिस आनेसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है।'
कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण होता है ॥ १२७ ॥
क्योंकि, एक पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य गर्भसे आदि लेकर आठ वर्षके भीतर छह अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर कृष्णलेश्या रूप परिणामको प्राप्त हुआ। इस प्रकार कृष्णलेश्याका प्रारंभ कर पुनः नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओंमें परिपाटी
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१ कृष्ण-णील-कपोतलेश्यानामेकशः अंतरं जघन्येनान्तर्महतः, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि साधिकानि । त.रा.४, २२, १०.
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