Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२१८ ]
मदि-सुदअण्णाणी गदस्स तदुधलंभादो ।
छडागमे खुदाबंधो
उक्कस्सेण बेछावट्टिसागरोवमाणि ॥ ९९ ॥
कुदो ? मदि- सुदअण्णाणिस्स सम्मत्तं घेतूण छावट्टिसागरोवमाणि देणाणि सणासु अंतरिय पुणो सम्मामिच्छत्तं गंतूण मिस्सणाणेहि अंतरिय पुणो सम्मत्तं घेण छावसागरोमाणि भ्रूणाणि भमिय मिच्छत्तं गदस्स तदुवलंभादो | कुदो देसूणतं ? उवसमसम्मत्तकालादो बेछावडिअ अंतरमिच्छत्तकालस्स बहुत्तुवलंभादो । सम्मामिच्छाइट्टीणाणं मदि-सुदअण्णाणमिदि कट्टु केइमाइरिया सम्मामिच्छत्तेण णांतरावेंति । त घडदे, सम्मामिच्छत्तभावायत्तणाणस्स सम्मामिच्छत्तं व पत्तजच्चतरस्स मदि-सुदअण्णाणत्तविरोहादो |
विभंगणाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०० ॥
हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है ।
मतिअज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर दो छयासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम काल होता है ॥ ९९ ॥
[ २, ३.९९.
क्योंकि, किसी मतिश्रुतअज्ञानी जीवके सम्यक्त्व ग्रहण करके, कुछ कम छयासठ सागरोपम कालप्रमाण सम्यग्ज्ञानोंका अन्तर देकर, पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको. जाकर मिश्रक्षानोंका अन्तर देकर पुनः सम्यक्त्व ग्रहण करके कुछ कम छ्यासठ सागरोपमप्रमाण परिभ्रमण कर मिथ्यात्वको जानेसे दो छयासठ सागरोपमप्रमाण मतिश्रुत अज्ञानोंका अन्तरकाल पाया जाता है ।
शंका- दो छयासठ सागरोपमोंमें जो कुछ कम काल बतलाया है वह क्यों ? समाधान - क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वकालसे दो छयासठ सागरोपमोंके भीतर मिथ्यात्वका काल अधिक पाया जाता है । ( देखो पु. ५, पृ. ६, अन्तरानुगम सूत्र ४ की टीका ) ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टिज्ञानको मति श्रुत अज्ञान रूप मानकर कितने ही आचार्य उपर्युक्त अन्तर- प्ररूपणा में सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर नहीं दिलाते । पर यह बात घटित नहीं होती, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्वभावके अधीन हुआ ज्ञान सम्यग्मिथ्यात्वके समान एक अन्य जातिका बन जाता है अतः उस ज्ञानको मति श्रुत अज्ञान रूप माननेमें विरोध आता है ।
विभंगज्ञानियोंका अन्तर कितने काल होता है ? ॥ १०० ॥
१ का सम्मामिच्छत्तं पत्त- '; मप्रतौ ' सम्मामिच्छतं च पत्त- ' इति पाठः ।
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