Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२, १, १५.] सामित्ताणुगमे इंदियमगणां
[६७ छण्णमिदियाणं खओवसमो तत्तो समुप्पण्णणाणं वा मदिणाणं, तस्सावरणं मदिणाणावरणमिदि इच्छिदव्यमण्णहा मदिआवरणस्साभावप्पसंगा।
एइंदियादीणमोदइओ भावो वत्तव्यो, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण एईयादिभावोवलंभा। जदि एवं ण इच्छिज्जदि तो सजोगि-अजोगिजिणाण पंचिंदियत्तं ण लब्भदे, खीणावरणे पंचण्हमिंदियाणं खओवसमाभावा । ण च तेसिं पंचिंदियत्ताभावो, पंचिदिएसु समुग्धादपदेण असंखेज्जेसु भागेसु सव्वलोगे वा त्ति सुत्तविरोहादो ?
एत्थ परिहारो बुच्चदे- एइंदियादीणं भावो ओदईओ होदि चेव, एइंदियजादिआदिणामकम्मोदएण तेसिमुप्पत्तीदंसणादो। एदम्हादो चेव सजोगि-अजोगिजिणाणं पचिंदियत्तं जुज्जदि त्ति जीवट्ठाणे पि' उबवण्णं । किंतु खुदाबंधे सजोगि-अजोगिजिणाणं सुद्धणएणाणिदियाणं पंचिंदियत्तं जदि इच्छिज्जदि तो ववहारणएण वत्तव्यं । तं जहापंचसु जाईसु जाणि पडिबद्धाणि पंच इंदियाणि ताणि खओवसमियाणि त्ति काऊण उवयारेण पंच वि जादीओ खओवसमियाओ त्ति कट्ट सजोगि-अजोगिजिणाणं खओव.
क्षयोपशम अथवा उस क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ ज्ञान मतिज्ञान है और उसीका आवरण मतिज्ञानावरण होता है, ऐसा मानना चाहिये । अन्यथा मतिज्ञानावरणके अभावका प्रसंग आ जायगा।
शंका-एकेन्द्रियादिको औदयिक भाव कहना चाहिये, क्योंकि एकेन्द्रियजाति आदिक नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रियादिक भाव पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जायगा तो सयोगी और अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रियभाव नहीं पाया जायगा, क्योंकि, उनके आवरणके क्षीण हो जानेपर पांचों इन्द्रियोंके क्षयोपशमका भी अभाव हो गया है। और सयोगि-अयोगी जिनोंके पंचेन्द्रियत्वका अभाव होता नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेपर "पंचेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा समुद्घात पदके द्वारा लोकके असंख्यात बहुभागोंमें अथवा सर्व लोकमें जीवों का अस्तित्व है" इस सूत्रसे विरोध आ जायगा ?
समाधान-यहां उक्त शंकाका परिहार कहते हैं। एकेन्द्रियादि जीवोंका भाव औदयिक तो होता ही है, क्योंकि, एकेन्द्रियजाति आदि नामकर्मों के उदयसे ही उनकी उत्पत्ति पायी जाती है। और इसीसे सयोगी व अयोगी जिनोंका पंचेन्द्रियत्व योग्य होता है, ऐसा जीवस्थान खंडमें भी स्वीकार किया गया है । किन्तु, इस क्षुद्रकबंध खंडमें शुद्ध नयसे अनिन्द्रिय कहे जानेवाले सयोगी और अयोगी जिनके यदि पंचेन्द्रियत्व कहना है, तो वह केवल व्यवहार नयसे ही कहा जा सकता है। वह इस प्रकार है-पांच जातियों में जो क्रमशः पांच इन्द्रियां सम्बद्ध हैं वे क्षायोपशमिक हैं ऐसा मानकर और उपचारसे पांचों जातियोंको भी क्षायोपशमिक स्वीकार करके
१ प्रतिषु ' जीवट्ठाणं पि ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org