Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, २, १३२.] एगजीवेण कालाणुगमे कसाइ-अकसाइकालपरूत्रणं मरणेण एगसमए भण्णमाणे माणस्स मणुसगई, मायाए तिरिक्खगई, लोभस्स देवगई मोत्तूण सेसासु तिसु गईसु उप्पाएअयो। कुदो ? णिरय-मणुस-तिरिक्ख-देवगईसु उप्पण्णाणं पढमसमए जहाकमेण कोध-माण-माया-लोभाणं चेवुदयदसणादो ।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १३०॥
अणप्पिदकसायादो अप्पिदकसायं गंतूणुक्कस्सकालं तत्थ द्विदस्स वि अंतोमुहूत्तादो अधियकालाणुवलंभादो' ।
अकसाई अवगदवेदभंगो ॥ १३१ ॥
जहा अवगदवेदाण उवसमसेडिं खवगसेडिं च पडुच्च जहण्णेण एगसमयअंतोमुहुत्तपरूवणा, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त-देसूणपुरकोडि परूवणा च कदा तधा अकसायाणं पि जहण्णुक्कस्सेहि कालपरूवणा कादव्या त्ति भणिदं होदि ।
___णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३२॥
कहनेपर मानकी मनुष्यगति, मायाकी तिर्यंचगति और लोभकी देवगतिको छोड़कर शेष तीन गतियों में जीवको उत्पन्न कराना चाहिये । कारण यह कि नरक, मनुष्य, तिथंच और देव गतियोंमें उत्पन्न हुए जीवों के प्रथम समयमें यथाक्रमसे क्रोध, मान, माया और लोभका उदय देखा जाता है।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव क्रोधकषायी आदि रहता है ।।१३०॥
क्योंकि, अविवक्षित कषायसे विवक्षित कषायको प्राप्त होकर उत्कृष्ट काल तक वहीं स्थित हुए भी जीवके अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल नहीं पाया जाता।
अकषायी जीवोंका काल अपगतवेदियोंके समान है ।। १३१ ॥
जिस प्रकार अपगतवेदियोंके उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणीकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय व अन्तर्मुहूर्त कालकी प्ररूपणा, तथा उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त व कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण कालकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार अकषायी जीवोंकी भी जघन्य और उत्कर्षसे कालप्ररूपणा करना चाहिये । यह उक्त सूत्रका अर्थ है ।।
ज्ञानमार्गणाणुसार जीव मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी कितने काल तक रहता है ? ॥ १३२ ।।
१ अ-काप्रयोः । अघियकालोवलंभादो', आप्रतौ अधियकालावलंभादो ' इति पाठः ।
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