Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२, ३, ३४.] एमजीवेण अंतराणुगमे सवठ्ठसिद्धिदेवाणमंतर
कुदो ? अणुदिसादिदेवस्स पुव्यकोडाउअमणुस्सेसुप्पज्जिय पुव्वकोडिं जीविद्ग सोहम्मीसाणं गंतूण तत्थ अड्डाइज्जसागरोवमाणि गमिय पुणो पुबकोडाउअमणुस्सेसुप्पज्जिय संजमं घेत्तूण अप्पप्पणो विमाणम्मि उप्पण्णस्स सादिरेयवेसागरोवममेतं. तरुवलंभादो।
__ सबट्टसिद्धिविमाणवासियदेवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥३३॥
सुगमं । णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ ३४ ॥
कुदो ? सव्वदृसिद्धीदो मणुसगइमोइण्णस्स मोक्खं मोत्तणण्णत्थ गमणामावादो। 'णस्थि अंतरं णिरंतरं' इदि पुणरुत्तदोसप्पसंगादो दोण्णमेक्कदरस्स संगहो काययो । ण एस दोसो, दो गए अवलंबिय हिददोण्हं पि सिस्साणमणुग्गह8 परूवयंतस्स पुणरुत्त
। क्योंकि, अनुदिशादि देवके पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर एक पूर्वकोटि तक जी कर सौधर्म-ईशान स्वर्गको जाकर वहां अढ़ाई सागरोपम काल व्यतीत कर पुनः पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर संयमको ग्रहण कर अपने अपने विमान में उत्पन्न होने पर उनका अन्तरकाल सातिरेक दो सागरोपमप्रमाण प्राप्त हो जाता है।
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥३३॥ यह सूत्र सुगम है।
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंका अपनी गतिसे अन्तर होता ही नहीं, वह गति निरन्तर है ॥ ३४ ॥
क्योंकि, सर्वार्थसिद्धिसे मनुष्यगतिमें उतरनेवाले जीवका मोक्षके सिवाय अन्यत्र गमन होता ही नहीं है।
शंका-'सर्वार्थसिद्धि विमानवासियोंका कोई अन्तरकाल नहीं होता, वह गति निरन्तर है' ऐसा कहने में पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है, अतएव दो उक्तियोंमेंसे किसी एकका ही संग्रह करना चाहिये । अर्थात् या तो 'अन्तरकाल नहीं होता' इतना कहना चाहिये, या 'निरन्तर है' इतना ही कहना चाहिये?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो मयोंका अवलम्बन करनेवाले दोनों प्रकारके शिष्यों के अनुग्रहके लिये उक्त प्रकारसे प्ररूपण करनेवाले सूत्रकारके पुनरुकि दोष उत्पन्न नहीं होता । ' अन्तर नहीं है यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org