Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, २, १७५.! एगजीवेण कालाणुगमे चखुदंसणिआदिकालपरूवर्ण (१७३
एइंदिओ बेइंदिओ तेइंदिओ चउरिंदियादिसु उप्पज्जिय बेसागरोवमसहस्साणि परिभमिय अचवखुदंसणीसु उप्पण्णस्सुवलंभादो । चक्खुदंसणक्खओवसमस्स एसो कालो णिदिट्टो । उवजोगं पुण पडुच्च जपणुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तो चेव ।
अचक्खुदंसणी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १७२ ॥ सुगमं । अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १७३ ॥
अभवियमभवियसमाणभवियं वा पडुच्च एसो गिद्देसो । कुदो ? अचखुदसणक्खओवसमरहिदछदुमत्थाणमणुवलंभादो ।
अणादिओ सपज्जवसिदो ॥ १७४ ॥
णिच्छएण सिज्ममा भवियजीवं पडुच्च एसो णिद्देसो । अचक्खुदसणस्स सादित्तं णस्थि, केवलदंसणादो अचक्खुदंसणमागच्छंतापमभावादो ।
ओधिदंसणी ओधिणाणीभंगो ॥ १७५॥
क्योंकि, किसी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व त्रीन्द्रिय जीवके चतुरिन्द्रियादि जीवों में उत्पन्न होकर दो हजार सागरोप: काल तक परिभ्रमण करके अच क्षुदर्शनी जीवों में उत्पन्न होनेपर चक्षदर्शनका दो हजार सागरोपम काल प्राप्त हो जाता है । यह काल चक्षुदर्शनके क्षयोपशमका कहा गया है। उपयोगकी अपेक्षा तो चक्षुदर्शनका जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्तमात्र ही है।
जीव अचक्षुदर्शनी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १७२ ।। यह सूत्र सुगम है। जीव अनादि अनन्त भी अचक्षुदर्शनी होता है ॥ १७३ ॥
अभव्य या अभव्यके समान भव्य की अपेक्षासे यह निर्देश किया गया है, क्योंकि अचक्षुदर्शनके क्षयोपशमसे रहित छद्मस्थ जीव पाये नहीं जाते।
जीव अनादि सान्त भी अचक्षुदर्शनी होता है ।। १७४ ॥
यह निर्देश निश्चयसे सिद्ध होनेवाले भव्य जीवकी अपेक्षा किया गया है। अचक्षुदर्शन सादि नहीं होता, क्योंकि केवलदर्शनसे पुनः अत्रक्षुदर्शनमें आनेवाले जीवोंका अभाव है।
अवधिदर्शनीकी कालप्ररूपणा अवधिज्ञानीके समान है ॥ १७५ ॥
१ प्रतिषु · अच खुदसणस्सागंताण-', मरतौ अचखुदंसणस्सागरछताण- ' इति पाठः ।
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