Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, १, १७. ]
सामित्तागमे इंदियमग्गणा
[ ६९
जीवाभावपसंगादो | होदु चे ण, पमाणाभावे पमेयस्स वि अभावप्यसंगा । ण चेवं, ताणुवलंभादो | तम्हा णाणस्स जीवो उवायाणकारणमिदि घेत्तव्वं । तं च उवादेयं जावदव्य भावि, अण्णहा दव्वणियमाभावादो । तदो इंदियविणासे ण णाणस्स विणासो | णाणसहकारिकारणइंदियाणमभावे कथं णाणस्स अत्थित्तमिदि चे ण णाणसहाव पोग्गलदव्याणुप्पण्ण उप्पाद-व्यय-धुअतु वलक्खियजीवदव्वस्स विणासाभावा । ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चैव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, खइर-सिंसव-धव-धम्मणगोमय- सूरयर- सुज्जकंतेहिंतो समुष्पज्जमाणेक्कग्गिकज्जुवलंभा । ण च छदुमत्थावत्थाए णाणकारणत्तेण पडिण्णिदियाणि खीणावरणे भिण्णजादीए णाणुप्पत्तिम्हि सहकारिकारणं होंति त्ति नियमो, अइपसंगादो, अण्णहा मोक्खा भावप्यसंगा । ण च मोक्खाभावो, बंधकारणपडिवक्खतिरयणाणमुवलंभा । ण च कारणं सकज्जं सव्वत्थ ण करेदिति नियमो अत्थि, तहाणुवलंभा । तम्हा अणिदिसु करणक्कमव्यवहाणादीदं णाणमत्थि ति घेत्तव्वं । ण च तष्णिक्कारणं अप्पट्टसष्णिहाणेण तदुप्पत्तीदो । सव्वकम्माणं खएणु
जीवके अभावका प्रसंग आ जायगा । यदि कहा जाय कि हो जाने दो शानस्वभावी जीवका अभाव, तो भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रमाणके अभाव में प्रमेयके भी अभावका प्रसंग आ जायगा । और प्रमेयका अभाव है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। इससे यही ग्रहण करना चाहिये कि ज्ञानका जीव उपादान कारण है । और वह ज्ञान उपादेय है जो कि यावत् द्रव्यमात्र में रहता है, अन्यथा द्रव्यके नियमका अभाव हो जायगा । इसलिये इन्द्रियों का विनाश हो जानेपर ज्ञानका विनाश नहीं होता ।
शंका - ज्ञान के सहकारी कारणभूत इन्द्रियोंके अभाव में ज्ञानका अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ज्ञानस्वभाव और पुद्गलद्रव्य से अनुत्पन्न, तथा उत्पाद व्यय एवं धुवत्वसे उपलक्षित जीवद्रव्यका विनाश न होनेसे इन्द्रियोंके अभाव में भी ज्ञानका अस्तित्व हो सकता है। एक कार्य सर्वत्र एक ही कारण से उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि, खदिर, शीशम धौ, धम्मन, गोबर, सूर्यकिरण व सूर्यकान्त मणि, इन भिन्न भिन्न कारणोंसे एक अग्नि रूप कार्य उत्पन्न होता पाया जाता है । तथा छद्मस्थावस्थामें ज्ञान के कारण रूपसे ग्रहण की गई इन्द्रियां क्षीणावरण जीवके भिन्न जातीय ज्ञानकी उत्पत्ति में सहकारी कारण हो, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आजायगा, या अन्यथा मोक्षके अभावका ही प्रसंग आजायगा । और मोक्षका अभाव है नहीं, क्योंकि, बन्धकारणोंके प्रतिपक्षी रत्नत्रयकी प्राप्ति है। और कारण सर्वत्र अपना कार्य नहीं करेगा, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। इस कारण अनिन्द्रिय जीवोंमें करण, क्रम और व्यवधान से अतीत ज्ञान होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यह ज्ञान निष्कारण भी नहीं है, क्योंकि, आत्मा और पदार्थके सन्नि धान अर्थात् सामीप्यसे वह उत्पन्न होता है । इस प्रकार समस्त कर्मोके क्षयसे उत्पन्न
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