Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, १, ५६.]
सामित्ताणुगमे दंसणमग्गणा ण च गहिदमेव गेण्हदि केवलदसणं, गहिदग्गहणे फलाभावा । ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं जेण सयलत्थसामण्णं केवलदंसणस्स विसओ होज्ज, संसारावत्थाए आवरगवसेण कमेण पयट्टमाणणाण-दंसणाणं' दवावगमाभावप्पसंगादो। कुदो ? ण गाणं दव्वपरिच्छेदयं, सामण्णवदिरित्तविसेसेसु तस्स वावारादो । ण दंसणं पि दव्वपरिच्छेदयं, तस्स विसेसवदिरित्तसामण्णम्मि वावारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वग्गहणाभावो, किंतु ण केवलिम्हि वि दब्बग्गहणमत्थि, सामण्ण-विसेसेसु एयंत-दुरंतपंथसंठिएसु वावदाणं केवलदसण-णाणाणं दव्वम्मि वावारविरोहादो। ण च एयंते सामण्ण-विसेसा अस्थि जेण ते तेसिं विसओ होज्ज । असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिंगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडि विसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तम्णिबंधणत्तादो । तम्हा ण सणमस्थि त्ति सिद्धं ?
शानके द्वारा ग्रहण किये पदार्थको ही केवलदर्शन ग्रहण करता है, क्योंकि, जो वस्तु ग्रहण की जा चुकी है उसे ही पुनः ग्रहण करनेका कोई फल नहीं। यह भी नहीं हो सकता कि समस्त विशेषमात्रका ग्रहण करनेवाला ही केवलज्ञान हो जिससे समस्त पदार्थों का सामान्य धर्म केवलदर्शनका विषय हो जाय, क्योंकि ऐसा माननेपर तो संसारावस्थामें जब आवरणके वशसे ज्ञान और दर्शनकी प्रवृत्ति क्रमशः होती है तब द्रव्यके ज्ञान होनेके अभावका ही प्रसंग आजायगा। इसका कारण यह है- ज्ञान द्रव्यका परिच्छेदक अर्थात् ज्ञान करानेवाला नहीं रहा, क्योंकि उसका व्यापार सामान्य रहित विशेषों में ही परिमित हो गया और न दर्शन ही द्रव्यका परिच्छेदक रहा, क्योंकि, उसका व्यापार विशेष रहित सामान्यमें सीमित हो गया । इस प्रकार न केवल संसारावस्थामें ही द्रव्यके ग्रहणका अभाव होगा, किन्तु केवलीमें भी द्रव्यका ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योंकि एकान्तरूपी दुरन्त पथमें स्थित सामान्य व विशेषमें प्रवृत्त हुए केवलदर्शन और केवलज्ञानका द्रव्यमात्रमें व्यापार मानने में विरोध आता है । एकान्ततः पृथक् सामान्य व विशेष तो होते नहीं है जिससे कि वे क्रमशः केवलदर्शन और केवलशानके विषय हो सकें। और यदि जो है ही नहीं उसको भी प्रमेयरूपसे मानना अभीष्ट हो तो गधेका सींग भी प्रेमय कोटिमें आजायगा, क्योंकि, अभावकी अपेक्षा दोनों में कोई विशेषता रही नहीं । प्रमेयके न रहने पर प्रमाण भी नहीं रहता, क्योंकि, प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है । इसलिये दर्शनकी कोई अलग सत्ता है ही नहीं यह सिद्ध हुआ ?
१ प्रतिषु ' -दसणाए ' इति पाठः।
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