Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, १, ८४.] सामित्ताणुगमे सण्णिमग्गणा
[ १११ विणासं पेच्छामो, सब्भूदासब्भूदत्थेसु तुल्लस्सद्दहणदंसणादो। तदो जुज्जदे सम्मामिच्छत्तस्स खओवसमिओ भावो त्ति ।
.मिच्छादिट्टी णाम कधं भवदि ? ॥ ८०॥
सुगमं ।
मिच्छत्तकम्मरस उदएण ॥ ८१ ॥ एवं पि सुगमं ।। सण्णियाणुवादेण सण्णी णाम कधं भवदि ? ॥ ८२ ॥ सुगमं । खओवसमियाए लद्धीए ॥ ८३॥
णोइंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं जादिवसेण अणंतगुणहाणीए हाइदूण देसपादित्तं पाविय उवसंताणमुदएण सण्णित्तदंसणादो ।
असण्णी णाम कधं भवदि ? ॥ ८४॥
सम्यक्त्वका निर्मूल विनाश नहीं देखते, क्योंकि, यहां सद्भूत और असद्भूत पदार्थों में समान श्रद्धान होता देखा जाता है । इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वको क्षायोपशमिक भाव मानना उपयुक्त है।
जीव मिथ्यादृष्टि कैसे होता है ? ॥ ८०॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि होता है ? ॥ ८१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। संज्ञीमार्गणानुसार जीव संज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८२ ॥ यह सूत्र सुगम है। क्षायोपशमिक लब्धिसे जीव संज्ञी होता है ॥ ८३ ॥
क्योंकि, नोइन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोंके अपनी जातिविशेषके प्रभावसे अनन्तगुणी हानिरूप घातके द्वारा देशघातित्त्वको प्राप्त होकर उपशान्त हुए पुनः उन्हींके उदय होनेसे संशित्व उत्पन्न होता देखा जाता है।
जीव असंज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८४ ॥
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