Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१४०) छक्खंडागमे खुदाबंधो
[ २, २, ५७. अणेयसहस्सवारं तत्थुप्पण्णे वि अंतोमुहुत्तादो अहियभवहिदीए अणुवलंभा । सुहमेइंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ५७ ॥ सुगम । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ५८ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ५९॥
सुहुमेइंदियपज्जत्ताणमपज्जत्ताणं च उक्कस्सभवविदिपमाणमंतोमुहुत्तमेव, सुहुमाणं पुण भवहिदी असंखेज्जा लोगा, कधमेदं ण विरुज्झदे ? ण, पज्जतापज्जत्तएसु असंखेज्जालोगमेत्तवारगदिमागदिं च करेंतस्स तदविरोधादो ।
बीइंदिया तीइंदिया चरिंदिया बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति? ॥ ६०॥
क्योंकि, अनेक सहस्रवार उसी उसी पर्यायमें उत्पन्न होने पर भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंकी भवस्थिति नहीं पायी जाती।
जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ५७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ॥ ५८ ॥
यह मूत्र भी सुगम है।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ॥ ५९॥
शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थितिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त ही है, जब कि सूक्ष्म जीवोंकी भवस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, यह बात परस्पर विरुद्ध क्यों न मानी जाय ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सूक्ष्म जीव असंख्यात लोकमात्र वार पर्याप्तक और अपर्याप्तकोंमें आवागमन करते हैं, इसलिये उनके अविच्छिन्न पर्याप्त व पर्याप्त कालके अन्तर्मुहूर्तमात्र होते हुए भी सूक्ष्म पर्यायसम्बन्धी कालके असंख्यात लोकप्रमाण होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तथा द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त व चतुरिन्द्रिय पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६ ॥
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