Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२, २, ८४.] एगजीवेण कालाणुगमे पुढविकायादिकालपरूवणं
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ८३॥ एदाणि वि सुगमाणि ।
सुहुमपुढविकाझ्या सुहुमआउकाइया सुहुमतेउकाइया सुहुमवाउकाइया सुहुमवणप्फदिकाइया सुहुमणिगोदजीवा पजत्ता अपजत्ता सुहुमेइंदियपज्जत-अपज्जत्ताणं भंगो ॥ ८४ ॥
जहा सुहमेइंदियाणं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहण उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा तधा एदेसि सुहुमपुढविआदीणं छण्हं जहष्णुक्कस्सकाला' होति । जहा सुहुमेइंदियपज्जत्ताणं जहण्णकालो उक्कस्सकालो वि अंतोमुहुत्तं होदि तहा सुहुमपुढविकायादीणं छहं पज्जत्ताणं जहण्णुक्कस्सकाला होति । जहा सुहुमेइंदियअपज्जत्ताणं जहण्णकालो खुद्दाभवग्गहणमुक्कस्सो अंतोमुहुत्तं तहा एदेसि छण्हमपज्जताणं जहण्णुक्कस्सकाला होति त्ति भणिदं होदि । सुहुमणिगोदग्गहणमणत्थयं, सुहुमवणप्फदिकाइयग्गहणेणेव सिद्धीदो ।
अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव बादर पृथिवीकायिक आदि अपर्याप्त रहते हैं ॥ ८३ ॥
ये सूत्र भी सुगम है।
सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म अपकायिक, सूक्ष्म तेजकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदजीव तथा इन्हीं पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके कालका निरूपण क्रमसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त व सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है ॥ ८४ ॥
जिस प्रकार सुक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात लोकप्रमाण काल है उसी प्रकार इन सूक्ष्म पृथिवीकायिकादिक छहोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल होता है। जिस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका जघन्य काल और उस्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त होता है उसी प्रकार सूक्ष्म पृथिवीकायिकादिक छह पर्याप्तोका जघन्य और उत्कृष्ठ काल होता है । जिस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीबोका अधन्य काल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है उसी प्रकार इन छह भपर्याप्तोका जघन्य और उत्कृष्ठ काल होता है । यह सूत्रका अभिप्राय है।
शंका-सूत्रमें सूक्ष्म निगोदजीवोंका ग्रहण करना अनर्थक है, क्योंकि, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवोंके ग्रहणसे ही उनका ग्रहण सिद्ध है । तथा सूक्ष्म वनस्पतिकायिक
१ अप्रतौ 'छ०हं पञ्जत्ताणं जहण्णु क्फरस काला' इति पाठः ।
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