Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१४८) छक्खंडागमे खुदाबंधी
[२, २, ८५. गच सुहुमवणप्फदिकाइयवदिरित्ता सुहुमणिगोदा अस्थि, तहाणुवलंभादो ? णेदं जुज्जदे, जत्थ सुत्तं णस्थि तत्थ आइरियवयणाणं वक्खाणाणं च पमाणत्तं होदि । जत्थ पुण जिणत्रयणविणिग्गयं सुत्तमत्थि ण तत्थ एदेसि पमाणत्तं । सुहुमवणप्फदिकाइए भणिदण सुहमणिगोदजीवा सुत्तम्मि परूविदा, तदो एदेसिं पुध परूवणण्णहाणुववत्तीदो सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदाणं विसेसो अस्थि त्ति णव्वदे।
वणप्फदिकाइया एइंदियाणं भंगो ॥ ८५॥
जहा एइंदियाणं जहण्णकालो खुदाभवग्गहणमुक्कस्सो अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियÉ तहा वणप्फदिकाइयाणं जहप्णकालो उक्कस्सकालो च होदि त्ति उत्तं होइ ।
णिगोदजीवा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ८६ ॥ सुगम । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ८७ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अबाइज्जपोग्गलपरियढें ॥ ८८ ॥
जीवोसे भिन्न सूक्ष्म निगोद जीव है भी नहीं, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता ?
समाधान-- यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, जहां सूत्र नहीं है वहां आचार्यवचनोंको और व्याख्यानोको प्रमाणता होती है । किन्तु जहां जिन भगवानके मुखसे निर्गत सूत्र है वहां इनको प्रमाणता नहीं होती। चूंकि सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंको कहकर सूत्रमें सूक्ष्म निगोदजीवोंका निरूपण किया गया है, अतः इनके पृथक् प्ररूपणकी अन्यथानुपपत्तिसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदजीवोंके भेद है, यह जाना जाता है।
वनस्पतिकायिक जीवोंके कालका कथन एकेन्द्रिय जीवोंके समान है ॥ ८५ ॥
जिस प्रकार एकेन्द्रियोंका जघन्य काल शुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है उसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवोंका जघन्य काल और उत्कृष्ट काल होता है, यह सूत्रका अर्थ है।
जीव निगोदजीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है। जीव जघन्यसे क्षुद्र भवग्रहण काल तक निगोदजीव रहते हैं ॥ ८७ ॥ यह सूत्र भी सुगम है।
जीव अधिकसे अधिक अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक निगोदजीव रहते हैं ? ॥ ८८॥
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