Book Title: Shatkhandagama Pustak 07
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १, ९१.] सामित्ताणुगमे सण्णिमग्गणा
[११३ ओरालिय-बेउव्विय-आहारसरीराणमुदएण चाहारो होदि । तेजा-कम्मइयाणमुदएण आहारो किण्ण वुच्चदे ? ण, विग्गहगदीए वि आहारित्तप्पसंगादो। ण च एवं, विग्गहगदीए अणाहारित्तदसणादो ।
अणाहारो णाम कधं भवदि ? ॥९॥ सुगममेदं ।
ओदइएण भावेण पुण खड्याए लद्धीए ॥ ९१ ॥
अजोगिभयवंतस्स सिद्धाणं च अणाहारत्तं खइयं घादिकम्माणं सव्वकम्माणं च खएण । विग्गहगदीए पुण ओदइएण भावेण, तत्थ सव्यकम्माणमुदयदंसणादो।
एवमेगजीवेण सामित्तं णाम अणियोगद्दारं समत्तं ।
औदारिक, वैक्रियिक व आहारक शरीरनामकर्म प्रकृतियोंके उदयसे जीव भाहारक होता है।
शंका-तैजस और कार्मण शरीरोंके उदयसे जीव आहारक क्यों नहीं होता?
समाधान नहीं होता, क्योंकि वैसा माननेपर विग्रहगतिमें भी जीवके आहारक होनेका प्रसंग आजायगा । और वैसा है नहीं, क्योंकि, विग्रहगतिमें जीवके अनाहारकभाव पाया जाता है।
जीव अनाहारक कैसे होता है ? ॥९॥ यह सूत्र सुगम है। औदयिक भावसे तथा क्षायिक लब्धिसे जीव अनाहारक होता है ॥ ९१ ॥
अयोगिकेवली भगवान् और सिद्धोंके क्षायिक अनाहारत्व होता है, क्योंकि, उनके क्रमशः घातिया कर्मोंका व समस्त कर्मोका क्षय होता है। किन्तु विग्रहगतिमें औदयिक भावसे अनाहारत्व होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें सभी कर्मोंका उदय पाया जाता है।
इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्त्व नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org